Wednesday 7 October 2015

इतिहास से साथ ही वर्तमान के भी दर्द बयान करती 'गांधी का चंपारण'

इसी भूमि ने गांधी को बनाया 'बापू'
बापू ने वहां निलहा अंग्रेजों द्वारा भारतीय किसानों पर किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई थी. सही मायनों में अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ बापू के आंदोलन की शुरुआत चंपारण से ही हुई थी. बापू को चंपारण बुलाने में सबसे बड़ा योगदान इलाके के किसान राजकुमार शुक्ला का माना जाता है. इन्हीं के बुलाने पर बापू यहां आए थे और वो राजकुमार शुक्ला ही थे जिन्होंने सबसे पहले महात्मा गांधी को बापू कहकर पुकारा था.

यहीं से शुरू हुए थे बापू के प्रयोग
बापू ने चंपारण में काफी दिन गुजारे थे और उन्होंने यहां शिक्षा से लेकर छुआछूत, सामाजिक भेद-भाव मिटाने समेत अपने तमाम प्रयोग किए थे. बापू का यहां आना अंग्रेजों को बिल्कुल नहीं सुहाया, उन्होंने बापू को यहां से वापस भेजने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए. लेकिन जब वो अपने तमाम हथकंडों से भी बापू को वापस ना भेज पाए तब उन्होंने निलहा अंग्रेजों के साथ मिलकर एक खौफनाक चाल सोची. उन्होंने बापू और डॉ राजेंद्र प्रसाद को खाने पर बुलाया. इनके साथ ही चंपारण के अजगरी गांव के रहने वाले बतख मियां, जो कि पेशे से बावर्ची थे भी आए. वहां पहुंचने पर जब अंग्रेजों ने बापू और डॉ राजेंद्र प्रसाद के लिए दूध का गिलास मंगवाया तो बतख मियां को दूध का रंग देखकर शक हुआ और उन्होंने चालाकी दिखाते हुए दूध गिरा दिया. गिरे दूध को अंग्रेज साहब के कुत्ते ने पी लिया और फिर मिनटों में ही जहर ने अपना रंग दिखाया. कुत्ता वहीं पर तड़प-तड़प कर मर गया.

किंवदंतियों में जिंदा हैं बतख मियां
हालांकि ये किस्सा इतिहास की किताबों में अपनी जगह नहीं बना पाया और बतख मियां इतिहास के किस्सों में कहीं गुम हो गए. लेकिन आज भी अजगरी गांव के लोगों के साथ ही डॉ राजेंद्र प्रसाद के करीबी भी बतख मियां का नाम लेते हैं और उनकी कहानियां सुनाते हैं. बापू के अथक प्रयासों से चंपारण के किसान अंग्रेजों के अत्याचारी रवैये से तो बच गए लेकिन आजादी के बाद की सरकारों ने चंपारण के किसानों को अंग्रेजी दौर से भी बुरे हाल में पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

विकास की रेस में पिछड़ता गया चंपारण
बापू के प्रयोगों की पहली प्रयोगशाला बने चंपारण का आजादी के लगभग सात दशक बीतने के बाद भी विकास तो दूर भौतिक सुख-सुविधाओं से भी महरूम होना हमें कहीं ना कहीं सोचने पर मजबूर करता है कि हमने बापू के सपनों को उनकी तस्वीरों के साथ ही कैद कर दिया है. बापू की 146वीं जयंती पर बापू के चंपारण दौरे के हर महत्वपूर्ण पड़ाव के साथ ही चंपारण की मौजूदा स्थिति तक का बेहतरीन चित्रण करती एक डॉक्यूमेंट्री आई है 'गांधी का चंपारण'.

इतिहास के साथ ही वर्तमान भी बताती 'गांधी का चंपारण'
इस डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से निर्देशक विश्वजीत मुखर्जी और उनकी टीम के शरद पारधे और देवेंद्र सैनी ने बापू के अधूरे सपनों और धूल खाते उनके स्मारकों का बखूबी चित्रण किया है. इस डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से हमें पता चलता है कि बापू के स्थापित पहले विद्यालय के बच्चे ही नहीं जानते कि महात्मा गांधी कौन थे? हालांकि उन्हें ये जरूर पता है कि नरेंद्र मोदी 'सरकार' हैं. उन गांवों का किसान आज भी अन्य किसानों की तरह महंगे डीजल, खाद-बीजों के साथ ही टूटी सड़कों कभी-कभी दर्शन देने वाली बिजली के अलावा सरकारी कर्मचारियों की घूसखोरी से भी परेशान है.

बापू को भूलती उनकी कर्मभूमि की युवा पीढ़ी
डॉक्यूमेंट्री हमें बताती है कि जहां गांधी जी ने किसानों की समस्याएं सुनी थीं वो घर आज खंडहर में तब्दील हो चुका है और कोई उसका पुरसहाल लेने वाला नहीं है. वो ऐतिहासिक मेज जिस पर गांधी जी और निलहा अंग्रेजों (नील मिल मालिकों) के बीच बैठक हुई थी उसपर आज राजनैतिक दल अपना हित साधने के लिए जमा होते हैं. गांधी जी के विभिन्न प्रवास स्थलों पर बने उनके स्मारकों का कोई हाल लेने वाला नहीं है. जिन स्थलों को पर्यटकों से भरा होना चाहिए वहां बिजली, पीने का पानी जैसी बुनियादी समस्याओं के साथ ही अपनी बाउंड्रीवॉल तक नहीं है.

ऐतिहासिक स्मारकों का बुरा हाल
बेतिया की ऐतिहासिक हजारीमल धर्मशाला जहां गांधी जी ठहरे थे आज वहां सांप बिच्छू रहते हैं और बाजार के बीचों-बीच होने के चलते कारोबारी उस पर नजर गड़ाए हैं, वो उस ऐतिहासिक धर्मशाला को तोड़कर शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बनाना चाहते हैं. नरकटियागंज के भितिहरवा आश्रम, जिसकी स्थापना गांधीजी ने अपने हाथों से की थी उसका हाल लेने वाला भी कोई नहीं है. कुल-मिलाकर अगर आप मोहनदास करमचंद गांधी को बापू बनाने वाली घटनाओं को फिर से जीने के साथ ही उस जगह का मौजूदा हाल देखना चाहते हैं तो 'गांधी का चंपारण' जरूर देखें.