Sunday 7 December 2014

IIMC में बढ़ता कदाचार

बरसों से सुनते आ रहे हैं कि पत्रकारिता की पढ़ाई के लिये एशिया में इससे अच्छी जगह नहीं है। लेकिन जब यहां आये तो देखा कि यहां तो अलग ही माहौल है, शिक्षा को तो दूसरा दर्जा मिला हुआ है। पहले दर्जे पर कदाचार है यहां। कुछ लोग हैं जिन्हें ना तो पत्रकारिता से मतलब है और ना ही सामाजिक तानेबाने से उनके लिये बस वही सही है जो वो करें बाकी सब बकवास। और अफसोस तो ये है कि ऐसे लोगों में सिर्फ छात्र ही नहीं है अपितु कुछ शिक्षक भी हैं औऱ सारा रायता उन्हीं का फैलाया हुआ है। उनकी कक्षा में अभिवादन पर पाबंदी है, क्योंकि ये सामंतवादी है। वो बच्चों से मांगकर सिगरेट पीेते हैं और पिलाते हैं क्योंकि उनकी नजर में ये सही है।
मुझे उनकी नजर और समझ से कोई आपत्ति नहीं है ना ही मुझे कोई हक है कि मैं उन्हें गलत साबित करूं। मैं तो बस ये कहना चाहता हूं कि आपके लिये जो सही है वो करो मेरे लिये जो सही होगा में वो करुंगा। शुक्रवार 5 दिसंबर को आईआईएमसी कैंपस में बोन फायर हुआ, मुझे कोई दिक्कत नहीं है ऐसे किसी भी समारोह से जिससे आपस में प्यार बढ़े और लोगों को आनन्द आये लेकिन, छात्र और शिक्षकों का खुले में साथ बैठकर शराब पीना और गाली गलौज करना ये मुझे नहीं पसंद। और में इसपर आपत्ति दर्ज कराउंगा फिर चाहे किसी को बुरा लगे या भला। और भारतीय संविधान की धारा 19-1 (क) के तहत मैंने फेसबुक पर लिखकर विरोध भी जताया। बस फिर क्या था सारे मॉडर्न लोगों को मिर्ची लग गई और फिर शुरू हुआ काउंटर अटैक। कुतर्कों की झड़ी लग गई जिसे नहीं पसंद वो ना आये, हम बच्चे नहीं हैं, मोरल पुलिसिंग मत करो वगैरह वगैरह। लंबे लंबे स्टेटस आने लगे और कमेंट का सिलसिला शुरू हो गया, वहीं पर एक मोहतरमा ने लिखा कि हम एलीट हैं क्योंकि हमें अंग्रेजी आती है। ये अंग्रेजी कब से एलीट होने का पैमाना हो गई ? एक और कमेंट था व्हाट द फक इज गोइंग ऑन ? मोहतरमा क्या आपने कभी अपने अभिभावकों से पूछा है ? व्हाट द फक दे हैड डन बिफोर ?
यही नहीं काउंटर अटैक में हमारा ही स्टेटस शेयर कर उसपे लिख रहे हैं तुमसे ना हो पायेगा औऱ फिर वहां एकत्रित होकर कमेंट कर के मजे ले रहे हैं, कमेंट आ रहे हैं - हैव सम लाइफ यार। ये कैसी लाइफ है जिसमें ना संस्कार हैं और ना ही बड़े छोटे का शर्म लिहाज ? हमें नहीं चाहिये ये लाइफ ये आप को ही मुबारक हो। रही बात मोरल पुलिसिंग की तो उसका भी सभी को पता है कि कैसे कैसे कुकर्म होते हैं कैंपस में और एक बार किसी ने रोकने की कोशिश की तो उसे उल्टा ही फंसा दिया गया था कि वो लड़कियों की फोटो खींचता है। हम भी यहां पढ़ने ही आये हैं बस फर्क इतना ही है कि हमें अच्छे बुरे का भान है और हम उसे ध्यान में रखते हुये ही कोई कदम उठाते हैं। और हमें ये भी पता है कि आप अपनी बिरादरी में हमें किस नाम से बुलाते हैं पिछड़े लोग, पितृसत्ता के पक्षधर, काउ बेल्ट के रहने वाले, गंवार वगैरह वगैरह। लेकिन एक बात साफ समझ लीजिये मान्यवरों सारे नर और नारियों जो परीक्षा पास करके आप यहां आये हैं वही परीक्षा हमने भी पास की है। ना तो समझदारी में ना ही तर्क वितर्क में आपसे पीछे हैं। हां ये जरूर हो सकता है कि हमारे मां बाप शायद आपके मां बाप से कम पैसे वाले होंगे लेकिन हमारे लिये ये गर्व का विषय है क्योंकि अगर उनके पास भी इतना पैसा होता तो हम भी यहां पढ़ाई के सिवा सारे काम करने ही आते। हमें इस पर शर्म नहीं आती। और ना ही हमें मूल्यों,संस्कारों, संस्कृति,संस्कृत की बात करने में शर्म आती है। क्योंकि हम लेनिन, माओत्से तुंग, फिदेल कास्त्रो की बजाय भगत,आजाद और सुभाष की बात करते हैं। उनकी तरह देश हित में कुर्बान होने में हमें गर्व होगा। ना कि साम्यवाद का नारा लगाते हुये जी भर के दारू पीकर गाली-लगौज और हंगामा करने में। आपके पीने से हमें कोई दिक्कत नहीं है लेकिन कुछ चीजें बंद कमरों में ही अच्छी लगती हैं। और हां एक बात तो छूट ही जा रही है मेरे किसी भी लेख में मैंने किसी व्यक्तिविशेष को तब तक निशाना नहीं बनाया जब तक कि व्यक्तिगत तरीके से मुझे निशाने पर नहीं लिया गया। इसलिये मैं ये उन्हें जो कि आज मेस में मुझे समझा रहे थे बताना चाहता हूं कि तुम कौन हो कि जिससे मैं आकर आपत्ति जताऊं? क्या वो बोन फायर तुमने आयोजित किया था ? अगर हां तो आगे आओ फिर तुमसे शिकायत करूं मैं। वर्ना इन सब बातों से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में रहते हुये मैं अपनी हर समस्या,सुख-दुख पूरी तरह अपने चाहने वालों के साथ शेयर करुंगा, जिसे नहीं पसंद वो ना पढ़े, ब्लॉक कर दे मुझे क्योंकि मेरी लेखनी रुकने वाली नहीं है। 

Saturday 22 November 2014

नारी : प्रेयसी भी और पीड़िता भी


वो बड़ी खूबसूरत थी जब भी उसे देखता था तो दिल अटक ही जाता था। अक्सर दिख ही जाती थी वो कॉलेज आते जाते और जब भी दिखती थी दिल उछल कर बाहर ही आना चाहता था जैसे। बड़ी प्यारी लगती थी वो, और लगना क्या थी ही बड़ी प्यारी। देखते तो उसे हमेशा थे और देखने के बाद लगता था कि सुबह- सुबह जागना और ठंडे पानी से नहाना सफल हो गया।

यूं ही हमारी आशिकी आगे-आगे और पढ़ाई जाने कहां पीछे-पीछे आती ही रही, और महीने बीतते गये, एक दिन देखा उसे तो थोड़ी अपसेट सी लगी लेकिन कभी बात तो हुई नहीं थी इसलिये टोकने की हिम्मत नहीं हुई। काफी कोशिशों के बाद थोड़ा सा पता चला कि किसी लड़के ने शायद कुछ कहा है।

खोजी पत्रकारिता के पहले सोपान को पार करते हुये डिटेल खोदी तो पता चला कि कहा सुनी नहीं है ये तो छेड़छाड़ का मामला था। लड़के ने जानबूझ कर उसे गलत तरीके से छुआ था। ये सुनकर बड़ा गुस्सा आया और सोचा कि सर तोड़ दें साले का।

लेकिन फिर सबने समझाया कि पहले कंप्लेन कर के देख लो। पहली बार उससे इस सिलसिले में बात होगी कभी सोचा नहीं था। मेरे बोलने पर वो तैयार हुई और फिर कॉलेज के वूमेन्स सेल में शिकायत की गई। फिर शुरू हुआ तारीख पर तारीख का सिलसिला।

हर तारीख पर उसे परेशानी के अलावा और कुछ नहीं मिला। ऐसे-ऐसे सवाल किये जाते थे कि लिखना मुश्किल है। फिर एक दिन सुनवाई के दौरान सेल की अध्यक्ष ने उससे केस वापस लेने की सलाह देते हुये कहा कि छेड़छाड़ साबित नहीं हो पायेगी क्योंकि कोई गवाह नहीं है।

इन सब बातों से वो इतनी परेशान हुई कि उसे काउंसलर की मदद लेनी पड़ी। काफी काउंसिलिंग के बाद वो ठीक हुई और फिर कॉलेज वापस आई। लेकिन आने के बाद वो वैसी नहीं रह गई, बिल्कुल डरी-सहमी और अपने में खोई रहने वाली बन गई। ऐसे किसी हादसे के चलते अपनी जिंदगी जीना भूल जाने वाली ये कोई पहली या आखिरी लड़की नहीं है।

बल्कि रोज हजारों लड़कियां ऐसे ही किसी कारण के चलते स्कूल, कॉलेज छोड़ने के लिये मजबूर हो जाती हैं। हर बार अपराधी बच निकलता है, कभी लोक-लोज का भय तो कभी, मामला साबित ना कर पाने डर।


ऐसा नहीं है कि इन बढ़ते अपराधों के पीछे कानून का ढ़ीला होना या फिर कमजोर होना जिम्मेदार है। बल्कि देखने वाली बात तो ये है कि कानून की सख्ती जैसे जैसे बढ़ रही है महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार भी बढ़ रहे हैं। फिर चाहे वो स्कूल कॉलेजों में, सड़कों पर ,कार्यालयों में और यहां तक कि घरों तक में रोज हो रही शारीरिक छेड़छाड़।


आखिर क्या वजह है कि ऐसे मामले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं और धीरे धीरे समाज उनको स्वीकार भी कर ले रहा है। छेड़छाड़ की शिकायत करने अगर लड़के के घर जाओ तो अक्सर ये बात सुनने में आती है कि लड़का है तो लड़की तो छेड़ेगा ही।

अब सवाल ये है कि ऐसी मानसिकता आखिर क्यों है। क्या इसके लिये समाज का पुरुषवादी होना जिम्मेदार है या फिर महिलाओं को भोग की वस्तु समझने की सोच?
इस पर लंबी बहस हो सकती है। लेकिन सवाल तो ये है कि भारत जहां नदियों को भी मां माना जाता है और नारियों की पूजा की जाती है। वहां ऐसे हालात आखिर क्यों हैं।


हमारा समाज जो कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता का गान करता है, वहां नारियों की इतनी बुरी दशा आखिर क्यों? बिना मां के हम पैदा नहीं हो सकते, बिना बहन के हमारा बचपन अच्छा नहीं बीत सकता, बिना पत्नी जीवन की कल्पना ही बेकार है, और बेटी तो सहारा होती ही है।


इतना सब करने के बाद भी अब नारी और क्या करे कि उसे बस उसकी जिंदगी थोड़ी आसान हो जाये। और उसे वो सब ना झेलना पड़े जो वो अभी झेल रही है।

Sunday 16 November 2014

सच्चा व्यंग्य

प्यारे साथियों अगर आप मुझे वोट देते हैं तो मैं जीतने के बाद सबसे पहला काम ये करुंगा कि कोई प्यासा ना सोये..। मतलब कि दारू फ्री..। दूसरा काम ये होगा कि लड़कियां छेड़ने का जो काम सिर्फ मेरे चेले करते आ रहे हैं, उस पर से उनका अधिपत्य हटाते हुये 60 फीसदी आरक्षण का प्रावधान करुंगा जिससे कोई भी नौजवान हीनभावना का शिकार ना हो..। नेताजी बोलते जा रहे थे और जनता मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुन रही थी..। नेताजी ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुये कहा कि ये जो टूटी सड़कें आप देख रहे हैं उनका भी कायाकल्प जल्द ये जल्द कराते हुयें उन्हें जुतवाकर उनमें खेती कराने का प्रावधान लागू करायेंगे क्योंकि भूखे सोने वाले आदमी को सड़क से ज्य़ादा रोटी की जरूरत होती है..। बिजली की किल्लत से आप लोग बराबर परेशान रहते हैं तो मित्रों आप को इस परेशानी से मुक्ति दिलाने के लिये कृतसंकल्पित आपका ये नेता सबके सामने घोषणा करता है कि अब से बिजली आपसे आंख मिचौली खेलने के लायक ही नहीं रह जायेगी..। मैं अपने क्षेत्रवासियों को बिजली की गुलामी से आजाद करते हुये सारे खंभे और तार नोचकर फिंकवाने का प्रबंध जीतते ही करुंगा..। बिना पानी के ट्यूबवेल का क्या काम सो मैं सारे सरकारी ट्यूबवेल भी बंद कराने का जुगाड़ कर ही लूंगा..। गुंडों और पुलिस की गुंडागर्दी से परेशान लोगों की समस्या का भी निदान है मेरे पास..। मैं सारे पुलिसवालों को भगाकर उनकी जगह गुंडों की भर्ती की भी अनुशंसा करुंगा जिससे पुलिस की गुंडागर्दी तो खत्म होगी ही और जब गुंडे ही पुलिस बन जायेंगे तो उनकी भी गुंडागर्दी खत्म ही समझो..। नेताजी अपने फ्लो में बोलते जा रहे थे और पब्लिक ने धड़ाधड़ तालियां बजाते हुये नेताजी जिंदाबाद के नारे लगा लगा कर माहौल को गुंजायमान बनाये रखा था..। सभा की समाप्ति पर नेताजी ने लोगों से एकबार फिर खुदको जिताने का वचन लेते हुये अपनी एंडेवर और फॉर्च्यूनर गाड़ियों के काफिले को धूल उड़ाने की आज्ञा सुना दी...।

Tuesday 11 November 2014

दशा बस्ती की

बस्ती की राजनीति तो शुरू से ही पतनोन्मुख रही है लेकिन, पिछले कुछ दिनों से इसमें एक नई गिरावट देखने को मिल रही है..। सांसद, विधायक बारी बारी से धरना प्रदर्शन कर खुद को पाक साफ साबित करने की कोशिश कर रहे हैं..। समझ नहीं आता इस पर हंसे या रोयें??
सालों से हम बस्ती के लोग ठगे जा रहे हैं..। होश संभाला तो कमंडल का दौर था और राम लहर पर सवार श्रीराम चौहान नामक जीव को सांसद बने सुना, जी बस सुना कभी देखने का अवसर नहीं मिला..। तीन बार लगातार राम लहर पर चढ़े रहे चौहान साहब लेकिन क्षेत्र में कभी दिखे नहीं..। हैं भूवर निरंजनपुर में उनके देखे जाने की अफवाहें जरूर सुनी..। फिर सीट आरक्षित हुई और चढ़ गुंडों की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर के सहारे लालमणी प्रसाद जीत गये.। जीतने से पहले नेताजी बड़े गरीब थे., बाद का तो सबको पता है। फिर सीट हुई सामान्य और भिड़े बड़े-बड़े योद्धा..। पूर्व काबीना मंत्री और हरैया विधानसभा के विधायक राजकिशोर सिंह सपा के टिकट पर, कुर्मी क्षत्रप रामप्रसाद चौधरी ने अपने भतीजे और ठेकेदार अरविंद कुमार को तो कांग्रेस ने मशहूर एनजीओबाज बसंत चौधरी को उतारा।  और बीजेपी ने योगी बाबा के आशिर्वाद युक्त साफ  छवि के एमएलसी डॉ. वाईडी सिंह पर दांव खेला..। इस चुनाव में सारे अनुमानों को धता बताते हुये चाचा के भतीजे ने अच्छे अंतर से जीत दर्ज की..। पूर्व मंत्री दूसरे तो डॉ. साब तीसरे नंबर पर रहे..। अरे हां लालमणी जी के बारे में भी बताना उचित रहेगा, वो भाग खड़े हुये और बहराइच सुरक्षित सीट पर जाकर रुके लेकिन उनके द्वारा बस्ती में विकास के लिये कराये गये धुंआधार काम ने उन्हें वहां जीतने ना दिया..। फिर हुआ इस बार का चुनाव जिसमें भतीजे की जगह रामप्रसाद खुद कूदे हाथी पर चढ़कर, और काबीना मंत्री ने अपनी जगह भाई और मशहूर गुंडे (जी हां वही जिन्होंने पुरानी बस्ती की मशहूर सर्राफा दुकान को दिन-दहाड़े लुटवा दिया था.) और भी कई केस हैं जनाब पर को उतारा, कांग्रेस ने पुराने घोड़े अंबिका सिंह को और बीजेपी ने 2012 का विधानसभा चुनाव हारे (युवा नेता) हरीश द्विवेदी को उतारा.। विधायकी हारने के बाद हरीश जी ने क्षेत्र में घूम-घूम कर अच्छी हवा बना रखी थी और बाकी काम "अबकी बार मोदी सरकार" ने कर दिया और दूबे जी जीत गये...। 6 महीने बीतने वाले हैं और वो बस दिल्ली मुंबई घूम रहे हैं, टीवी पर साक्षात्कार दे रहे  हैं, प्रीतिभोज का लुत्फ उठा रहे हैं, फीते काट रहे हैं, और धरना दे रहे हैं..। दूबे जी के 6 महीने जोड़कर सन् 1990 से 2014 तक में 20 साल हो गये हैं.। अब सारे सपाई,बसपाई,भाजपाई एक साथ मिलकर आयें और ज्यादा नहीं बस 20 बड़े काम गिना दो जो कि सही में जनकल्याण को हुये हों..। और अगर नहीं गिना सकते तो सोशल मीडिया पर चाटुकारिता की जगह सवाल उठाना शुरू करो..। 

Monday 27 October 2014

उठो जागो...

इस देश में ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनके लिये मरने का दिल करता है....। दिल को छू कर गुजरने के बजाय दिल में उतर गईं ये लाइनें मिली फुगली से..। जी हां फुगली मूवी से, यूं तो बहुतों ने फुगली देखी होगी लेकिन उस के पीछे का संदेश शायद ही कोई समझा होगा..। फिल्म में एक जगह पृष्ठभूमि से आवाज आती है कि क्या एक लड़की की इज्जत बचाने की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी..। अफसोस ये आवाज एक न्यूज चैनल पर चल रही खबर की लाइन है..। और इस पर अफसोस इस बात का है कि मीडियाकर्मी पुलिस प्रशासन, नेताओं पर आरोप लगाते हैं कि वो अपना काम सही से नहीं कर रहे..। काश कि ये कहने से पहले वो जरा अपने गिरेबान में भी झांक लेते..। क्या किसी को याद है कि कब कैमरे गरीब के भूखे पेट की जगह लड़कियों के क्लीवेज पर शिफ्ट हुये...। क्या कोई बता सकता है कि 80% गरीबों को छोड़ कर कब माइक 10 % सेलिब्रिटीज की तरफ मुड़ गया..। क्यों स्क्रिप्ट में किसानों मजदूरों की समस्याओं की जगह एंटीलिया और बीएमडब्ल्यू आ गये..। क्यों हर खबर टीआरपी को ध्यान में रखकर दिखाई जाती है..। क्यों संवेदनाओं और मानवीयता का प्रयोग अपने फायदे के लिये ही किया जाता है..।क्या यही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है कि अपने ही कर्मचारियों से बंधकों की तरह काम लें और आवाज उठाने पर नौकरी से निकाल दें..। नेता और पुलिस का गठजोड़ तो नाली और कीड़े की तरह है इस पर बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है... लेकिन सवाल वही है कि जब हर कोई अपने फायदे के लिये ही जी रहा है तो किस से उम्मीद लगायें.. और क्यों लगायें..। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने दशकों पहले कहा था कि हम भारतीय लोग रेल के डिब्बे की तरह हैं हमें आगे बढ़ने के लिये इंजन की जरूरत होती है..। इंजन चुनते भी हमीं हैं लेकिन जब वही इंजन गलत ट्रैक पर सरपट भागने लगता है तो हम चुपचाप पीछे पीछे चलते जाते हैं और चिल्लाते जाते हैं कि ये रास्ता गलत है गलत है..। सीधी भाषा में कहें तो क्या चूतियापा है ये..। रास्ता गलत है तो छोड़ दो बदल दो वो इंजन जो गलत ट्रैक पर जाये..। और इंजन बदलें क्यों.. क्यों हमें जरूरत है इंजन की क्या हममें इतनी भी काबिलियत नहीं है कि हम अपना रास्ता खुद बना सकें...। और अगर है काबिलियत तो इच्छाशक्ति क्या उधार लेनी पड़ेगी.। नेताजी, आजाद, शहीद ए आजम ने हमें गोरों की गुलामी से इसीलिये आजाद कराया था कि लुटेरों का रंग बदल जाये बस और हम यूं ही लुटते रहें..। नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है हम लुटने के लिये नहीं बने बस जरूरत है हमें खड़े होने की और समाज की सारी बुराइयों से एकजुट होकर लड़ने की..। और इसकी शुरुआत भी हमें खुद से ही करनी पड़ेगी.। पहचानना पड़ेगा उन्हें जो महिला सशक्तिकरण पर लंबे लंबे भाषण देखते हैं और लड़की देखते ही कहते हैं वाह क्या माल है.। बेइमानों को जी भर भर के गालियां देते हैं और खुद मौका मिलते ही पैसा बनाने लगते हैं..। आदर्शों की दुहाई देंगे और अपने फायदे के लिये आदर्शों की तिलांजलि दे देते हैं..।  जब तक हम ऐसा नहीं करते तब तक हमें किसी के काम में कमी निकालने का कोई हक नहीं है..।