Monday 26 January 2015

IIMC में महत्वहीन भारतीय गणतंत्र


ये है भारतीय जनसंचार संस्थान(IIMC) जहां कि भारत के साथ ही विश्व के सुदूर कोनों से भी लोग पत्रकारिता पढ़ने आते हैं। और ये तस्वीर है 26-01-2015 सुबह 11:20 बजे की जहां भारत के हर कोने में गणतंत्र दिवस की धूम थी। हर तरफ झंडारोहण हो चुका था और मिष्ठान्न वितरण के बाद लोग विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनन्द उठा रहे थे। हम आईआईएमसी में पढ़ने वाले बच्चे जो कि छात्रावास में रहते हैं। रोज की तरह नाश्ते पर इकट्ठा हुये। आमतौर पर मैं नाश्ता नहीं करता महीनों में कहीं एक बार कर लिया तो कर लिया, लेकिन आज मैं सुबह बहुत जल्दी उठ गया था क्योंकि आज गर्व का दिन था, जश्न मनाने का दिन था। नाश्ते पर मेरी बात हुई नीरज से वो बोला कि यार कोई तैयारी नहीं दिख रही अपने यहां। मैंने कहा यार यहां 15 अगस्त को 11 बजे के बाद ध्वजारोहण हुआ था, हो सकता है आज भी वही हो। फिर संस्थान में उपस्थित कर्मचारियों से बात की तो पता चला कि यहां 26 जनवरी को कोई समारोह नहीं होता। थोड़ी निराशा हुई और ज्यादा दुख। फिर हमने सोचा कि 11 बजे तक देख लेते हैं फिर करते हैं जो करना है। लेकिन 11:20 तक कुछ नहीं हुआ तो हम निकल पड़े झंडे की तलाश में। हालांकि मेरी जेब में पड़े हुये आखिरी 200 रुपये इस बात की इजाजत तो नहीं दे रहे थे कि हम ऐसा करें, लेकिन हम निकल पड़े ये सोचकर कि ये दिन बार-बार नहीं आता। मैं,नीरज प्रियदर्शी और हमारे अनन्य सहयोगी महापंडित(राहुल सांकृत्यायन) पैदल नजदीकी बाजार कटवरिया सराय पंहुचे पूरा बाजार छान मारा लेकिन एक अदद झंडा नहीं मिला। हमने वहां चाय पी और विचार किया कि आज तो झंडा लेकर ही चलना है। फिर हम वहां से निकले और पंहुचे बेर सराय लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगी झंडा नहीं मिला। वहीं पुराने जेएनयू परिसर में स्थित सीआरपीएफ के कैंप में भी हम पंहुच गये झंडे की खोज में लेकिन, उन्होंने कहा कि उनके पास एक ही झंडा था जो कि फहराया जा चुका है। हम बाहर निकले और फिर महापंडित ने कहा कि यार अब ना बस से चलते हैं मुनीरका। हम उनकी बात मानकर बस में बैठे और मुनीरका पंहुचे वहां की गलियों की खाक छानी बहुत खोजने पर एक जगह झंडा मिला उसे लेकर हम वाया ऑटो संस्थान वापस लौटे। यहां कर्मचारियों ने देखा तो कहा कि आ गये गणतंत्र दिवस मनाकर ? हमने कहा कि नहीं तो अभी तो बाकी है यहीं फहरायेंगे तिरंगा। उन्होंने मना कर दिया कि यहां 26 जनवरी को कोई समारोह नहीं होता। लेकिन हम जिद पर थे कि आज तो झंडारोहण करके रहेंगे। वैसे भी अब हम तीन ही नहीं थे हमारे अन्य साथी प्रशांत,जितेश,विकास,चंद्रभूषण,अमन,धर्मेंद्र,अमित,इम्तियाज भी थे। हम जोर-शोर से डंडे की खोज में लग गय जिसे झंडे में लगाया जा सके। फाइनली हमारे साथी इम्तियाज को मिल ही गया डंडा। हमने झंडे को डंडे में लगाया और फिर हमने ऊपर चढ़ने के जुगाड़ की सोची क्योंकि चढ़ने के लिये कोई शॉर्टकट तो है नहीं और ऊपर ताला लगा था। हम अंदर घुसे तो हमें एक सीढ़ी मिल गई बस फिर क्या था? सीढ़ी थी तो छोटी लेकिन हमारे देसी स्पाइडरमैन नीरज उसके सहारे ही चढ़ गये और हमने फिर थोड़ा सा ऊपर चढ़कर झंडा पकड़ाया। अभी ये सब चल ही रहा था कि एक महाशय अंदर से दौड़ते हुये निकले और बोले कि परमीशन कहां है ? बिना परमीशन कैसे कर रहे हो ? और भी तमाम सवाल लेेकर वो कूद पड़े। हमारे महापंडित और अन्य साथियों ने उनसे शब्दों में मुकाबला कर उन्हें निरुत्तर कर दिया फिर भी वो माने नहीं और किसी प्रशासनिक अधिकारी को फोन कर हमारी शिकायत कर दी। लेकिन अधिकारी ने मामले में दखल देने से मना करते हुये कहा कि झंडा ही तो फहरा रहे हैं। कौन सा गलत कर रहे हैं करने दो। हालांकि तब तक हम झंडा फहरा चुके थे।
फिर उन्होंने खुद ही चाभी मंगाई और ताला खुलवाया और हम सारे कॉमरेड ऊपर गये।।
ये तो रही आज के झंडारोहण की कहानी


अब बात करते हैं थोड़ी सामाजिक और संवैधानिक गरिमाओं की।  हर सरकारी संस्थान में 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्टूबर को ध्वजारोहण का प्रावधान है। लेकिन आईआईएमसी हेडक्वार्टर 15 अगस्त को दिन में 11 बजे के बाद, अमरावती में इस साल हुआ ही नहीं बाकी सालों का पता नहीं। 2 अक्टूबर तो खैर स्वच्छता दिवस में निकल गया और 26 जनवरी को तो हद ही हो गई यहां ना तो कोई समारोह ना कुछ गणतंत्र दिवस बस एक छुट्टी बनकर रह गया। वजह पूछने पर गोल मोल जवाब कि यहां नहीं होता,कुछ वजह है, ये है, वो है जाने क्या क्या। लेकिन असल वजह कोई नहीं बता रहा।

कितनी शर्मनाक बात है कि ना तो कोई प्रशासनिक अधिकारी और ना ही महान रूप से एक्टिव रहने वाला आईआईएमसी एलुम्नाई एसोसिएशन (इम्का) इस दिन संस्थान में झंडारोहण करने के लिये आगे आया। जबकि 4-5 दिसंबर 2014 की रात में यहां कुछ शिक्षकों और कुछ छात्रों के सौजन्य से धूम-धाम से बोनफायर का आयोजन हुआ था जहां क्या-क्या हुआ था सबको पता है। और तो और विरोध करने पर मारने-पीटने तक की धमकियां दी गईं। शिकायत करने पर कोई कार्यवाही नहीं की गई अपितु पीड़ित पक्ष को डांट कर चुप करा दिया गया।  24 जनवरी को वसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा करना चाहते थे तो उनको ये कहते हुये मना कर दिया गया कि संस्थान सेक्यूलर है यहां बस राष्ट्रीय पर्व 15 अगस्त, 2 अक्टूबर, और 26 जनवरी ही मनाये जाते है। फिर अब आप ही बताओ कि 26 जनवरी क्यों नहीं मनाई गई ? क्या इससे भी देश की सेक्यूलर इमेज को खतरा है? बंद कक्षाओं में एथिक्स और मोरलिटी के लेक्चर देना बहुत आसान है लेकिन आम जीवन में उनका पालन करना बेहद मुश्किल।। यहां आप वामपंथी कविताओं के पोस्टर लगा सकते हैं किसी अनुमति की जरूरत नहीं।लेकिन तिरंगा फहराने के लिये आपको एक दिन पहले आवेदन देना पड़ेगा। पूरा कैंपस धूम्रपान मुक्त है लेकिन यहां शिक्षक छात्रों को और छात्र शिक्षक को सिगरेट के साथ ही वीड का भी लेन-देन करते हैं। गाजा-सीरिया पर लंबी-लंबी बहसें होती हैं और अपने देश से किसी को कोई लेना देना ही नहीं। आईआईएमसी हॉस्टल के तो कहने ही क्या ? कहने को तो हॉस्टल में रहने वालों के लिये 32 नियम हैं जिनमें नशाखोरी नहीं करने,10 बजे के बाद बाहर तो दूर किसी और के कमरे में जाने की मनाही लिखी है लेकिन यहां लोग पूरी रात बाहर घूमते रहते हैं। नशाखोरी तो बेहद आम बात है यहां। अब ऐसे में सवाल ये है कि आईआईएमसी में पत्रकारों की नई पीढ़ी तैयार की जाती है या नशाखोर, अराजक, और नक्सली विचारधारा को मानने वाले नौजवानों की फौज ??

Saturday 24 January 2015

अमेरिका कब तक रहेगा ऐसे ही विनम्र

ऐसा पहली बार हो रहा है जब अपने गणतंत्र दिवस पर हम अमेरिका के राष्ट्रपति की मेजबानी करेंगे। वैसे तो हमने कई बार अंकल सैम की मेजबानी की है लेकिन ये पहली बार है जब उनकी मेजबानी हम अकेले कर रहे हैं। जी हां क्योंकि पहले जितनी भी बार अमेरिकी राष्ट्रपति भारत दौरे पर आये उनकी यात्रा बिना इस्लामाबाद गये पूरी नहीं हुई। लेकिन अब चाहे इसे मोदी का दक्षिण एशिया में बढ़ता प्रभुत्व कहें या फिर अमेरिका की अवसरवादी कूटनीति अबकी बार ओबामा भारत आयेंगे लेकिन पाकिस्तान नहीं जायेंगे।
असलियत में इसके पीछे वजह साफ दिख रही है कि अमेरिका को पता है कि अब भारत सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ अपना रुख सख्त,बहुत ही सख्त कर लिया है। तो दिखावे के लिये ही सही उसे भी सख्त होना ही पड़ेगा वर्ना इससे भारत अमेरिका के रिश्तों पर बुरा परिणाम पड़ सकता है। जो कि अमेरिका के लिये कूटनीतिक और आर्थिक दोनों मोर्चों पर नुकसानदायक होगा। अमेरिका बिल्कुल भी नहीं चाहेगा कि पाकिस्तान जैसे खुद से लड़ते देश के लिये वो दक्षिण एशिया की उभरती हुई महाशक्ति भारत से रिश्ते खराब करे। वैसे भी अमेरिका को सिर्फ दिखावा ही करना है और हम उसी में खुश हो जाते हैं। उदाहरणस्वरूप एक तरफ तो अमेरिका हाफिज, दाउद पर इनाम घोषित करके पाकिस्तान को उन्हें शरण देने से मना करने और दिखाई देने पर गिरफ्तार करने की बात करता है जिसे पाकिस्तान कभी मानता ही नहीं। फिर भी अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान की भूमिका की सराहना करते हुये उसे आतंकवाद के खिलाफ चल रही लड़ाई में एक अहम सहयोगी मानता है। और अरबों डॉलर की सहायता देता है।
भूतकाल में भारत अमेरिका के रिश्ते काफी हद तक एकतरफा रहे हैं जिसमें भारत की भूमिका हमेशा से छोटे भाई की रही है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि अमेरिका भारत को लगभग बराबरी का दर्जा देता हुआ दिख रहा है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा गणतंत्र दिवस पर आने के लिये भेजे गये आमंत्रण को ओबामा ने एक बार में स्वीकार करने के साथ ही यहां आने में जो गर्मजोशी दिखाई है उसके कई मायने हैं। दक्षिण एशिया में मुख्यत: चीन का दबदबा है जो कि अमेरिका का शर्तिया प्रतिद्वंदी है और अमेरिका को अच्छे से पता है कि सिर्फ भारत ही चीन को यहां टक्कर दे सकता है। और उसके व्यावसायिक तथा कूटनीतिक हितों की रक्षा कर सकता है। वर्ना ये वही अमेरिका है जिसका नेवी बेड़ा 1971 में अरब सागर तक आ गया था। और 11-13 मई 1998 के परमाणु विस्फोटों  के बाद जिसने भारत पर तमाम तरह के प्रतिबंध लादने में जरा भी देर नहीं लगाई थी।
दूसरी तरफ अगर अमेरिका के इस कदम को वैश्विक स्तर पर देखें तो पता चलता है कि अपने पुराने सहयोगी रूस के साथ भारत के रिश्ते पहले जैसे नहीं हैं। और अमेरिका इस मौके को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता। इसीलिये ओबामा ना सिर्फ भारत आने के लिये तैयार हुये बल्कि उन्होंने पाकिस्तान ना जाने और ही रक्षा तथा जलवायु समझौते करने के पर भी फोकस किया है। जबकि आमतौर पर ऐसे समझौतों के लिये अमेरिका सामने वाले देश से कम ही रुचि दिखाता है।

यहां पर ये देखना दिलचस्प होगा कि भारत अमेरिका के रिश्तों में ये गर्माहट कब तक बनी रहती है। क्योंकि रूस इतनी आसानी से भारत से अपनी दोस्ती नहीं तोड़ेगा और रूसी राष्ट्पति पुतिन जिस तरह से अमेरिका और पश्चिमी देशों को ठेंगे पर रखते हैं उसे देखते हुये अमेरिका का इतना विनम्र व्यवहार बहुत दिनों तक तो नहीं रह सकता।

Monday 5 January 2015

क्या सिर्फ यही सच है ?

राज 23-24 साल का एक युवा जिसके लिये सिगरेट का धुंआ ऑक्सीजन से ज्यादा जरूरी है, शराब नसों में बहती है खून की तरह और कानून रहता है ठेंगे पर। अपराधी नहीं है लेकिन फिर भी उसके लिये कानून की वही हैसियत जो आज की मीडिया के लिये एथिक्स की है। मैं उससे मिला तो हमेशा की तरह वो शराब और सिगरेट से लबरेज था। साथ बैठे तो बातचीत शुरू हुई..।

मैं—क्या यार क्यों हमेशा ऐसे ही नशे में डूबे रहते हो
?
राज- नशे में कौन नहीं है ?, नेता पावर के नशे में, पुलिस रिश्वत के नशे में, मीडिया टीआरपी के नशे में।

मैं- अरे यार ये फिलॉसफी ना करो बताओ ना ऐसा क्यों है?
राज- क्या बताऊं? छोटा था तो परिवार को हमेशा डर लगा रहता था कि अगर अच्छे नंबर ना आये तो क्या होगा? टीनएजर हुआ तो अच्छी नौकरी ना मिली तो क्या होगा? गर्लफ्रेंड भी बनी तो उसकी अलग दिक्कतें ये करो ये ना करो।

मैं- अच्छा ? फिर
राज- फिर क्या किसी तरह से 10+2 किया फिर बीए करने की कोशिश की, लेकिन हो नहीं पाया, तो ग्रेटर नोएडा आ गया घर से लड़ाई करके एनीमेटर बनने। वहां कुछ लोगों ने अलग ही सब्जबाग दिखाकर मास कॉम में एडमिशन करा दिया। बड़ी अच्छी फील्ड है बड़ा पैसा और ग्लैमर है ब्लॉ-ब्लॉ 
बोलकर। पहले साल तो खूब मजा आया लेकिन समझ भी आने लगा कि बेटा, हमसे ना हो पायेगा।

मैं- ऐसा क्या? लेकिन क्यों?
राज- यार सीनियर्स को भटकते देखा नौकरी के लिये, जिसे नौकरी मिल गई वो सैलरी के लिये मरा 
जा रहा था, छुट्टियों जैसा कुछ होता ही नहीं मीडिया में, ये भी दिखने लगा।

मैं- हां सही कह रहे हो यार। फिर?
राज- सेकेंड इयर के पेपर्स खत्म हुये तो कोशिश की इंटर्नशिप पाने की, कुछ जगहों से बुरी तरह से भगाया गया बेइज्जत करके, फिर एक दिन एक रीजनल न्यूज चैनल से कॉल आई और इंटर्नशिप लग गई, फिर शुरू हुई असली दिक्कतें। सुबह 11 बजे जाना फिर वापस आते आते 10-11 बज ही जाते थे। धीरे-धीरे इंटर्नशिप खत्म हुई और नौकरी मिल गई, फिर कुछ ही दिनों बाद एक नेशनल चैनल से फोन आया और मैं वहां पंहुच गया..।

मैं--अरे वाह ये तो बहुत अच्छी बात है इतनी जल्दी कौन पंहुचता है नेशनल चैनल में?
राज- हंसने लगा और बोला - सही कह रहे हो इतनी जल्दी कौन पंहुचता है नेशनल चैनल में, ये कहते हुये उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसे मेरी बात बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी। खैर उसने आगे शुरू किया। वहां कुछ ही दिन बीते थे कि मुझे नाइट शिफ्ट में डाल दिया गया और लगभग नौ महीने तक लगातार मैं नाइट शिफ्ट में ही रहा।
इसी बीच थर्ड इयर के पेपर्स और आईआईएमसी का इंट्रेंस और फिर इंटरव्यू भी हो गया। सेलेक्शन तो पक्का था ही क्योंकि मुझे खुदपर भी यकीन था और उन पर भी जिन्होंने मुझे प्रेरित किया था यहां के लिये ट्राई करने के लिये।

और फिर एक दिन ऑफिस में जैसा कि अक्सर होता है बिना गॉडफादर वालों के साथ, सीनियर नें बिना गलती के चिल्लाना और गाली देना शुरू कर दिया और अपनी आदत से मजबूर मैंने भी जवाब के साथ ही नौकरी को भी लात मार दी। और फिर कुछ दिन खाली बैठा, फिर यहां आईआईएमसी में। इतना कहकर राज तो चुप हो गया लेकिन, मैं सोचने लगा।

मीडिया जो खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहते नहीं थकता, लोगों की आवाज होने का दंभ भरने वाले ये बड़े-बड़े मीडिया संस्थान सबकी कमियां तो उजागर करते हैं लेकिन जब बात खुद पर आती है तो अजीब सी चुप्पी इख्तियार कर लेते हैं। सैलरी के नाम पर चंद सिक्के पकड़ा देना, काम के घंटों का कुछ पता नहीं, जिसका जैसा जुगाड़ उसको उतनी सहूलियत। छुट्टी मांगो तो लगता है कि जैसे भीख मांग रहे हैं, वीकऑफ मिलेगा या नहीं कुछ पता नहीं। पेड न्यूज और विज्ञापन ही हर बुलेटिन और खबर का भविष्य तय करते हैं।

संपादकों की जगह अब मैनेजरों की भर्ती होती है, चाहे वो एक लाइन भी ना लिख पाये लेकिन उसे विज्ञापन खींचना और टीआरपी लाना आना चाहिये।


दर्शकों की मांग के नाम पर अश्लीलता फैलाने को अपना धर्म समझते हैं ये लोग। सब के काम में कमी निकालने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने वाले इन लोगों को अपने काम में कमी निकालने वाला लोकतंत्र के ही खिलाफ लगने लगता है और वो इसे सीधे सीधे सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करार दे देते हैं।

हालात ये हैं कि मीडिया पर कुछ अच्छा लिखना चाहो तो गूगल देवता की शरण में जाना पड़ता है। आम आदमी को लगता है कि मीडिया दलाल है, चोर है, पथभ्रष्ट है, और ऐसा लगने की वजह भी है, मीडिया जब चाहे किसी को भी हीरो बना देता है और जिसे चाहे विलेन। उदाहरस्वरूप चाहे वो दिल्ली की शिक्षिका उमा खुराना का मामला हो या फिर हालिया आम चुनावो में नरेंद्र मोदी की विजय। ये सब मीडिया मैनेजमेंट की ही देन है।

एक तरफ मीडिया फर्जी बाबाओं के खिलाफ खबर चलाता है तो वहीं दूसरी तरफ संत गुरमीत राम रहीम जी इंसा और निर्मल बाबा के सत्संग भी। फर्जी डॉक्टरों, दवाइयों के खिलाफ खबर चलेगी और फिर आधे घंटे का किसी फर्जी हकीम, डॉक्टर या स्वास्थ्य वर्धक गोली, पाउडर, वजन घटाओ चाय, बेल्ट और च्यवनप्राश का प्रचार क्या इसके पीछे पैसे के अलावा और कुछ जिम्मेदार हो सकता है ? 

ऐसा नहीं है कि ये हालात किसी एकाएक बने हैं बल्कि अगर हम ध्यान दें तो पता चलता है कि कुछ खास लोग जो कि मीडिया में ऊंचे- ऊंचे पदों पर बैठे हैं सब उन्हीं की महत्वाकांक्षाओं का नतीजा है जो पावर और पैसा के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखते हैं और विडम्बना तो ये है कि इसमें सुधार की भी कोई गुंजाइश नहीं दिखती।