Wednesday 7 October 2015

इतिहास से साथ ही वर्तमान के भी दर्द बयान करती 'गांधी का चंपारण'

इसी भूमि ने गांधी को बनाया 'बापू'
बापू ने वहां निलहा अंग्रेजों द्वारा भारतीय किसानों पर किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई थी. सही मायनों में अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ बापू के आंदोलन की शुरुआत चंपारण से ही हुई थी. बापू को चंपारण बुलाने में सबसे बड़ा योगदान इलाके के किसान राजकुमार शुक्ला का माना जाता है. इन्हीं के बुलाने पर बापू यहां आए थे और वो राजकुमार शुक्ला ही थे जिन्होंने सबसे पहले महात्मा गांधी को बापू कहकर पुकारा था.

यहीं से शुरू हुए थे बापू के प्रयोग
बापू ने चंपारण में काफी दिन गुजारे थे और उन्होंने यहां शिक्षा से लेकर छुआछूत, सामाजिक भेद-भाव मिटाने समेत अपने तमाम प्रयोग किए थे. बापू का यहां आना अंग्रेजों को बिल्कुल नहीं सुहाया, उन्होंने बापू को यहां से वापस भेजने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए. लेकिन जब वो अपने तमाम हथकंडों से भी बापू को वापस ना भेज पाए तब उन्होंने निलहा अंग्रेजों के साथ मिलकर एक खौफनाक चाल सोची. उन्होंने बापू और डॉ राजेंद्र प्रसाद को खाने पर बुलाया. इनके साथ ही चंपारण के अजगरी गांव के रहने वाले बतख मियां, जो कि पेशे से बावर्ची थे भी आए. वहां पहुंचने पर जब अंग्रेजों ने बापू और डॉ राजेंद्र प्रसाद के लिए दूध का गिलास मंगवाया तो बतख मियां को दूध का रंग देखकर शक हुआ और उन्होंने चालाकी दिखाते हुए दूध गिरा दिया. गिरे दूध को अंग्रेज साहब के कुत्ते ने पी लिया और फिर मिनटों में ही जहर ने अपना रंग दिखाया. कुत्ता वहीं पर तड़प-तड़प कर मर गया.

किंवदंतियों में जिंदा हैं बतख मियां
हालांकि ये किस्सा इतिहास की किताबों में अपनी जगह नहीं बना पाया और बतख मियां इतिहास के किस्सों में कहीं गुम हो गए. लेकिन आज भी अजगरी गांव के लोगों के साथ ही डॉ राजेंद्र प्रसाद के करीबी भी बतख मियां का नाम लेते हैं और उनकी कहानियां सुनाते हैं. बापू के अथक प्रयासों से चंपारण के किसान अंग्रेजों के अत्याचारी रवैये से तो बच गए लेकिन आजादी के बाद की सरकारों ने चंपारण के किसानों को अंग्रेजी दौर से भी बुरे हाल में पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

विकास की रेस में पिछड़ता गया चंपारण
बापू के प्रयोगों की पहली प्रयोगशाला बने चंपारण का आजादी के लगभग सात दशक बीतने के बाद भी विकास तो दूर भौतिक सुख-सुविधाओं से भी महरूम होना हमें कहीं ना कहीं सोचने पर मजबूर करता है कि हमने बापू के सपनों को उनकी तस्वीरों के साथ ही कैद कर दिया है. बापू की 146वीं जयंती पर बापू के चंपारण दौरे के हर महत्वपूर्ण पड़ाव के साथ ही चंपारण की मौजूदा स्थिति तक का बेहतरीन चित्रण करती एक डॉक्यूमेंट्री आई है 'गांधी का चंपारण'.

इतिहास के साथ ही वर्तमान भी बताती 'गांधी का चंपारण'
इस डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से निर्देशक विश्वजीत मुखर्जी और उनकी टीम के शरद पारधे और देवेंद्र सैनी ने बापू के अधूरे सपनों और धूल खाते उनके स्मारकों का बखूबी चित्रण किया है. इस डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से हमें पता चलता है कि बापू के स्थापित पहले विद्यालय के बच्चे ही नहीं जानते कि महात्मा गांधी कौन थे? हालांकि उन्हें ये जरूर पता है कि नरेंद्र मोदी 'सरकार' हैं. उन गांवों का किसान आज भी अन्य किसानों की तरह महंगे डीजल, खाद-बीजों के साथ ही टूटी सड़कों कभी-कभी दर्शन देने वाली बिजली के अलावा सरकारी कर्मचारियों की घूसखोरी से भी परेशान है.

बापू को भूलती उनकी कर्मभूमि की युवा पीढ़ी
डॉक्यूमेंट्री हमें बताती है कि जहां गांधी जी ने किसानों की समस्याएं सुनी थीं वो घर आज खंडहर में तब्दील हो चुका है और कोई उसका पुरसहाल लेने वाला नहीं है. वो ऐतिहासिक मेज जिस पर गांधी जी और निलहा अंग्रेजों (नील मिल मालिकों) के बीच बैठक हुई थी उसपर आज राजनैतिक दल अपना हित साधने के लिए जमा होते हैं. गांधी जी के विभिन्न प्रवास स्थलों पर बने उनके स्मारकों का कोई हाल लेने वाला नहीं है. जिन स्थलों को पर्यटकों से भरा होना चाहिए वहां बिजली, पीने का पानी जैसी बुनियादी समस्याओं के साथ ही अपनी बाउंड्रीवॉल तक नहीं है.

ऐतिहासिक स्मारकों का बुरा हाल
बेतिया की ऐतिहासिक हजारीमल धर्मशाला जहां गांधी जी ठहरे थे आज वहां सांप बिच्छू रहते हैं और बाजार के बीचों-बीच होने के चलते कारोबारी उस पर नजर गड़ाए हैं, वो उस ऐतिहासिक धर्मशाला को तोड़कर शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बनाना चाहते हैं. नरकटियागंज के भितिहरवा आश्रम, जिसकी स्थापना गांधीजी ने अपने हाथों से की थी उसका हाल लेने वाला भी कोई नहीं है. कुल-मिलाकर अगर आप मोहनदास करमचंद गांधी को बापू बनाने वाली घटनाओं को फिर से जीने के साथ ही उस जगह का मौजूदा हाल देखना चाहते हैं तो 'गांधी का चंपारण' जरूर देखें.

Tuesday 19 May 2015

मैजिकल मेसी की बदौलत बार्सिलोना बना ला-लीगा चैंपियन



स्पेनिश फुटबॉल लीग जिसे ला-लीगा के नाम से जाना जाता है के 2014-15 सीजन के अपने 37वें मैच में मौजूदा विजेता एटलेटिको मैड्रिड को 1-0 से हराकर बार्सिलोना ने एक मैच शेष रहते ही सीजन का खिताब अपने नाम कर लिया। मजे की बात ये है कि पिछले साल एटलेटिको ने बार्सिलोना को उसके घरेलू मैदान पर हराकर खिताब जीता था तो वहीं इस साल बार्सिलोना ने एटलेटिको को उसी के घर में मात देकर खिताब भी जीत लिया और अपना बदला भी पूरा कर लिया। यह बार्सिलोना का कुल 23वां तथा पिछले 7 सालों में 5वां ला-लीगा खिताब है। बार्सिलोना के ला-लीगा चैंपियन बनने में बड़ा योगदान MSN यानि कि मेसी, सुआरेज़ और नेमार का रहा जिन्होंने इस साल ला-लीगा में बार्सिलोना द्वारा किये गये 108गोलों में से 79 गोल अपने नाम किये। इस प्रदर्शन के दम पर इन्होंने बार्सिलोना के लिये 2008-09 सीजन में मेसी,थिएरे हेनरी और सैमुएल एटो के एक सत्र में सर्वाधिक गोलों के रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया। जबकि इस साल के सभी कंपटीशनों को मिला दिया जाये तो MSN के गोलों की संख्या 115 पहुंच जाती है जो कि बार्सिलोना के लिये एक साल में सर्वश्रेष्ठ है। इस पूरे सीजन में बार्सिलोना का प्रदर्शन काबिलेतारीफ रहा और उन्होंने अटैक, डिफेंस और मिडफील्ड हर तरफ अपने प्रदर्शन से लोगों को अभीभूत कर दिया। यह जीत इसलिये भी खास है क्योंकि सालों से बार्का मिडफील्ड की जान बने रहे ज़ावी और इनिएस्ता इस साल सिर्फ चार बार एक साथ किसी मैच की शुरुआती एकादश में जगह बना पाये। मैनेजर लुईस एनरीके ने शुरुआती टीम में इनकी जगह पर सर्जियो बस्केट और इवान रैकिटिच को मौका दिया और इन्होंने इस मौके को भुनाते हुये पूरे सीजन में जबरदस्त खेल दिखाया, खासतौर से रैकिटिच ने तो अपने खेल से इनकी कमी महसूस नहीं होने दी। अगर डिफेंस की बात करें तो जहां जेवियर मस्करानो और जेरेमी मैथिऊ के अलावा गेरार्ड पिके ने भी जबरदस्त खेल दिखाया जबकि थॉमस वरमलीन का पूरा सीजन चोटिल रहते ही बीत गया(हालांकि सीजन के आखिरी मैच में उनके खेलने की संभावना है)। वहीं जॉर्डी अल्बा और दानी अलावेस ने लेफ्ट बैक और राइट बैक पोजीशन पर अपनी स्पीड और एबिलिटी से टीम को गतिमान रखने में मदद की। बात अगर गोलकीपिंग की करें तो चिली के क्लाउडियो ब्रावो ने ला-लीगा के 37 मैचों में 23 क्लीन शीट अर्जित कीं। ब्रावो ने इन मैचों में सिर्फ 19 गोल खाये और 74 गोल्स बचाये। बार्सिलोना ने इस सीजन के 37 मैचों में 11 बार विपक्षी टीम को पांच या उससे ज्यादा गोलों से मात दी। बार्सिलोना के 12 खिलाड़ियों नेमार, क्लाउडियो ब्रावो, लुईस सुआरेज़, जेरेमी मैथिऊ, इवान रैकिटिच, रफिन्हा, डगलस, टेर स्टेगन, मुनीर अल हदादी, सान्ड्रो, मैसिप और थॉमस वरमलीन के लिये बार्सिलोना के साथ यह पहला ला-लीगा खिताब है।

एक मैच शेष रहते बार्सिलोना द्वारा 93 अंकों के साथ खिताब जीतने के बाद बार्का तथा उससे चार अंक पीछे रियाल मैड्रिड चैंपियंस लीग के लिये क्वालीफाई कर गये हैं। जबकि 77 अंकों के साथ तीसरे स्थान वाली एटलेटिको मैड्रिड तथा 74 अंकों के साथ चौथे स्थान पर मौजूद वेलेंसिया में से कौन सीधे क्वालीफाई करेगा तथा किसे क्वालीफायर्स से गुजरना पड़ेगा इसका फैसला दोनों टीमों के आखिरी मैच के नतीजों से होगा। जबकि अगर वैलेंसिया अपना आखिरी मैच हार जाती है और पांचवे स्थान पर मौजूद सैविला अपना आखिरी मैच जीत लेती है तो सैविला चैंपियंस लीग के क्वालीफायर मुकाबले खेलने के लिये क्वालीफाई कर जायेगी जबकि वैलेंसिया को विल्लार्रियल के साथ यूरोपा लीग में खेलना पड़ेगा।

Monday 4 May 2015

कहानी लीजेंड मोहम्मद सलीम की

दोस्तों आज की हमारी कहानी है एक ऐसे खिलाड़ी की जो सन् 1904 में कोलकाता के मेटियाबुरुज नाम की एक छोटी सी जगह के एक बहुत ही गरीब खानदान में पैदा हुआ था। वहां से निकल कर उसने अपने खेल के दम पर स्कॉटलैंड तक का सफर तय किया। और दुनिया उसे आज यूरोप मे खेलने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी के रूप में जानती है।
1920-30 का दौर था भारत के लोग अंग्रेजों को देश से भगाने के लिये हर कोशिश कर रहे थे। उसी दौर में देश के कुछ इलाकों, खासकर बंगाल के लोगों ने फुटबॉल को अंग्रेजों के खिलाफ एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू किया। वो नंगे पैर फुटबॉल खेलते थे और बूट पहनकर खेलने वाले अंग्रेजों को हराकर उन्हें ये एहसास दिलाते थे कि भारतीय लोग राज करना जानते हैं। क्योंकि अंग्रेजों का कहना था कि अभी भारत के लोग इतने काबिल नहीं हुये हैं कि राज कर सकें।
उस दौर में मोहम्मद सलीम भारत के सबसे बेहतरीन युवा फुटबॉल खिलाड़ी के रूप में उभरे। उनके खेल को देखते हुये उन्हें बाऊबाजार के मशहूर चितरंजन क्लब ने अपने साथ जोड़ लिया। इनके साथ खेलते हुये सलीम ने शानदार खेल दिखाया जिसके चलते मोहम्मडन की बी टीम ने उन्हें अपने साथ जोड़ने में जरा भी देर नहीं लगाई।
लेकिन यहां करियर को कोई खास फायदा ना होते देखकर सलीम ने उस वक्त के बंगाल के मशहूर खेल एडमिनिस्ट्रेटर पंकज गुप्ता के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुये उनकी टीम स्पोर्टिंग यूनियन को ज्वाइन कर लिया। जहां से ईस्ट बंगाल और आर्यन्स क्लब होते हुये वो 1934 में मोहम्मडन स्पोर्टिंग की सीनियर टीम में आये और फिर शुरू हुआ सलीम के खेल का सबसे बेहतरीन वक्त।
देश के सबसे पुराने फुटबॉल क्लबों में से एक मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब नाम के लिये सलीम फॉरवर्ड और मिडफील्ड दोनों पोजीशन पर खेलते थे(बिल्कुल रोनाल्डो और मेसी की तरह)। सलीम के खेल के दम पर मोहम्मडन स्पोर्टिंग ने 1934 से लेकर 1938 तक लगातार 5 बार कलकत्ता फुटबॉल लीग का खिताब अपने नाम किया।
1936 की खिताबी जीत में सलीम के योगदान को देखते हुये उन्हें भारत में आयोजित पहले अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल मैच में खेलने के लिये आमंत्रित किया गया। जिसमें भारत की दो टीमें- ऑल इंडिया इलेवन और मिलिट्री तथा सिविलियन्स को मिलाकर बनी टीम को चीन की ओलम्पिक टीम के साथ दो मैच खेलने थे।
पहले मैच में सलीम के खेल को देखकर चीनी अधिकारियों ने उनकी खूब प्रशंसा की। उनके खेल को देखते हुये सेना और पुलिस ने उन्हें अपनी टीम में शामिल करने की कोशिश की लेकिन सलीम तो गायब हो चुके थे। पुलिस ने सलीम को खोजने की बहुत कोशिश की, यहां तक कि अखबारों में विज्ञापन भी दिये गये। लेकिन सलीम तो निकल चुके थे । वो इंग्लैंड में रहने वाले अपने एक रिश्तेदार हशीम के साथ मिस्र की राजधानी कायरो के रास्ते लंदन की तरफ निकल पड़े। लंदन में कुछ दिन बिताने के बाद उन्होंने हशीम के कहने पर स्कॉटलैंड के सबसे बड़े और मशहूर क्लब सेल्टिक के लिये ऑडिशन देने का फैसला किया।
सेल्टिक के मैनेजर विली मैले ने पहले तो नंगे पैर खेलने वाले भारतीय खिलाड़ी को लेने में हिचकिचाहट दिखाई लेकिन हशीम के जोर डालने पर वो ऑडिशन के लिये तैयार हो गये। और उन्होंने सलीम से क्लब के 1000 सदस्यों और तीन कोचों के सामने ऑडिशन देने के लिये कहा।
सलीम ने ऑडिशन में गेंद को कंट्रोल करने की अपनी क्षमता और खेल से सभी को प्रभावित कर दिया। उन्होंने टीम के साथ दो फ्रेंडली मैच खेले जिनमें उन्होंने इतना धमाकेदार प्रदर्शन किया किया कि वहां के मशहूर अखबार स्कॉटिश डेली एक्सप्रेस ने अपने उस दिन के अखबार में इंडियन जगलर न्यू स्टाइल हेडिंग के साथ इनकी तारीफ में लंबा आर्टिकल लिखा। और इस तरह वो किसी यूरोपियन लीग मे खेलने वाले भारतीय उपमहाद्वीप के पहले खिलाड़ी बन गये।
लेकिन ये जादूगर सेल्टिक के लिये प्रतिस्पर्धी मैच नहीं खेल पाया क्योंकि उनकी तबीयत खराब होने लगी और उन्होंने घर वापस आने के लिये क्लब के मैनेजर से कहा। हालांकि उन लोगों ने सलीम को रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन जब सलीम नहीं माने तो क्लब ने उनके सम्मान में एक प्रदर्शनी मैच कराने और मैच की टिकटों के जरिये कुल कमाई का 5 प्रतिशत उन्हें देने की बात कही। लेकिन सलीम ने पैसे लेने से इनकार करते हुये उसे मैच देखने आये अनाथ लोगों में बंटवा दिया।
उस वक्त ये रकम 1800 यूरो यानि लगभग 12 लाख रुपये थी। दोस्तों सोचो जरा उस वक्त इतने रुपयों से क्या कुछ नहीं किया जा सकता था, लेकिन हमारे सलीम ने जरा भी लालच ना करते हुये वो रकम अनाथों में बंटवा दी और घर चले आये।
वापस आते वक्त उन्हें जर्मन लीग में खेलने का भी ऑफर मिला था लेकिन उन्होंने भारत वापस आकर फिर से मोहम्मडन स्पोर्टिंग क्लब ज्वाइन किया। और अगले दो सालों तक उन्हें फिर से कलकत्ता फुटबॉल लीग का चैंपियन बनाया।
काफी सालों बाद जब एक बार सलीम बीमार पड़े तो उनके बेटे राशिद ने सेल्टिक को उनकी हालत बताने के लिये खत लिखा। और पता दोस्तों जवाब में क्या सेल्टिक ने क्या किया? सेल्टिक ने उनकी तबीयत जल्द ठीक होने की शुभकामनाओं के साथ इलाज के लिये 100 यूरो का बैंकड्रॉफ्ट भी भेजा। इससे पता चलता है कि वो कितने बड़े खिलाड़ी थे और सेल्टिक में उनकी कितनी इज्जत थी।
1976 में सलीम को पहला बिधान चंद्र रॉय अवार्ड भी मिला। बाद में सन् 1980 में 76 साल की उम्र में सलीम की मौत हो गई। लेकिन दोस्तों आप सोच भी नहीं सकते कि हमने इस लीजेंड के साथ क्या किया? हमारे देश में सलीम को जानने वाले लोग बहुत ही कम हैं जबकि विदेशों मे जब भी इंडियन फुटबॉल की बात होती है तो सबसे पहले सलीम का ही नाम आता है। और सेल्टिक ने तो अपनी वेबसाइट पर आज भी सलीम का नाम बड़े गर्व से लिखा हुआ है।

Thursday 30 April 2015

भारतीय फुटबॉल का छोटा सा इतिहास। भाग -2

राष्ट्रीय फुटबॉल लीग की स्थापना
भारतीय फुटबॉल जगत को 1996 में बड़ा उछाल मिला जब ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन ने राष्ट्रीय फुटबॉल लीग की स्थापना की । यह भारत की पहली राष्ट्रीय घरेलू लीग थी। इसका पहला खिताब जेसीटी क्लब ने जीता था। इस लीग को खास सफलता ना मिलते देख सन् 2007 में इसका पुनर्गठन आई-लीग के नाम से किया गया और इसे दो डिवीजन में बांट दिया गया।
आई-लीग और आई-लीग2 । हर साल आई-लीग में सबसे नीचे की दो टीमें रेलीगेट होकर आई-लीग-2 में चली जाती हैं और वहां की दो टॉप टीमें आई-लीग में आ जाती हैं। पहली आई-लीग डेम्पो स्पोर्टिंग क्लब ने जीती थी। सबसे ज्यादा बार आई- लीग का खिताब भी डेम्पो ने ही जीता है। डेम्पो ने दो बार एनएफएल(नेशनल फुटबॉल लीग) और तीन बार आई-लीग का खिताब अपने नाम किया है। इस लिस्ट में डेम्पो के बाद मोहन बागान का नाम आता है जिसने एनएफएल का खिताब तीन बार जीता है। लीग के अब तक के इतिहास में किसी भी टीम ने लगातार तीन बार खिताब नहीं जीता है। हालांकि ईस्ट बंगाल और डेम्पो इसे लगातार दो-दो बार जीत चुके हैं। ईस्ट बंगाल के नाम इस लीग में सबसे ज्यादा जीत(194) के साथ ही लगातार 22 मैचों तक अजेय रहने का रिकॉर्ड भी है। तो वहीं मोहन बागान के नाम लगातार 10 जीत का रिकॉर्ड है और चर्चिल ब्रदर्स ने लीग के इतिहास में सबसे ज्यादा 623 गोल किये हैं।
आई- लीग के गोल तथा अन्य व्यक्तिगत रिकॉर्ड

सबसे ज्यादा गोल                            -       रैंटी मार्टिन्स 185 गोल
एक सीजन में सबसे ज्यादा गोल          -        रैंटी मार्टिन्स 32 गोल(डेम्पो के लिये 2011-12में)
एक मैच में सबसे ज्यादा गोल              -        रैंटी मार्टिन्स (डेम्पो)7 गोल एयर इंडिया के खिलाफ
एक एडिशन में सबसे ज्यादा टीम गोल   -        डेम्पो (63) 2010-11 सीजन में
सबसे ज्यादा अंतर से जीत                   -        डेम्पो 14-0 एयर इंडिया के खिलाफ
एक साल में सबसे ज्यादा अंक लेकर जीत-       डेम्पो 57 अंक 2011-12 सीजन में



20वीं शताब्दी में भारतीय फुटबॉल
भारतीय टीम सन् 2004 के एशियन कप के लिये क्वालीफाई करने में नाकाम रही लेकिन इस नाकामी से उबरते हुये भारत ने पहले एफ्रो एशियन गेम्स का रजत पदक जीता। इस टूर्नामेंट में भारत ने अपने से बहुत ऊंची रैंकिंग वाली रवांडा और जिम्बाब्वे जैसी टीमों को हराया। हालांकि फाइनल में वो उज्बेकिस्तान से 1-0 से हार गये। इस प्रदर्शन के बाद भारतीय टीम को देश के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत प्रशंसा मिली। नवंबर 2003 में भारतीय टीम के तात्कालिक कोच स्टीफेन कॉन्सटैंटाइन को एएफसी मैनेजर ऑफ द मन्थ का पुरस्कार भी मिला।
2003 के सैफ कप में भारतीय टीम को पाकिस्तान और बांग्लादेश से हार का सामना करना पड़ा। इस हार के साथ ही भारत 2006 के फीफा विश्व कप के क्वालीफायर्स मुकाबले में भी हार गया जिसके चलते कोच स्टीफेन को अपना पद छोड़ना पड़ा। स्टीफेन के कोचिंग दौर में भारत द्वारा वियतनाम में आयोजित एलजी कप को जीतना एक बड़ी सफलता थी। 1974 के बाद से ये उपमहाद्वीप के बाहर भारत की पहली जीत थी। इस मैच में भारत ने पहले तीस मिनट में 2-0 से पिछड़ने का बाद वियतनाम को 3-2 से हराकर खिताब जीता था।
सन् 2005 में सैयद नइमुद्दीन को भारतीय फुटबाल टीम का कोच नियुक्त किया गयालेकिन 2007 में एएफसी एशियन कप के लिये आयोजित क्वालिफायर में भारत को मिली करारी हार के बाद उन्हें हटा दिया गयाजिसके बाद 2006 में बॉब हॉटन को कोच नियुक्त किया गया।
भारतीय फुटबॉल में बॉब हॉटन का युग
जून 2006 में जब बॉब हॉटन को भारतीय फुटबॉल टीम का कोच नियुक्त किया गया था तब उनकी पहचान स्वीडिश फुटबॉल में क्रांति लाने वाले व्यक्ति के रूप में थी। इंग्लिश फुटबॉल टीम के मौजूदा कोच रॉय हडसन के साथ मिलकर हटन ने ही सबसे पहले स्वीडिश फुटबॉल में जोनल मार्किग शुरू करने के साथ ही लंबे पासों के जरिये काउंटर अटैक के नियम को बरकरार रखा था। लेकिन वो स्वीडन था, एक ऐसा देश जहां पर ढ़ांचागत सुविधाएं और अकादमिक जागरुकता थी। ऐसी जगह काम करने के बाद हटन का अगला कार्यकाल था भारत में, जहां पर ढ़ांचागत सुविधाओं का अभाव होने के साथ ही निचले स्तर पर युवाओं के लिये अकादमियों का भी अभाव था। किसी भी स्तर के कोच के लिये खिलाड़ियों का भरोसा ही सफलता का आधार है। अपने पांच साल के कार्यकाल में बॉब ने खिलाड़ियों का भरोसा जीतने के साथ ही अभूतपूर्व सफलताओं भी अर्जित की। इस सफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण था बॉब का अपने खिलाड़ियों पर अच्छे और बुरे दोनों वक्त में भरोसा रखना। सुब्रतो पॉल के रूप में बॉब के भरोसे का एक बड़ा उदाहरण हमारे सामने है। सोदपुर (बंगाल) के रहने वाले सुब्रतो 2008-09 के सीजन में जब ईस्ट बंगाल के साथ खेलते हुये अपनी सबसे बुरी फॉर्म से गुजर रहे थे उस वक्त भी हॉटन का कहना था कि सुब्रतो देश के नंबर एक गोलकीपर हैं। और सुब्रतो ने हॉटन के भरोसे पर खरा उतरते हुये 2009 के नेहरू कप के फाइनल में मैच जिताऊ प्रदर्शन करते हुये उस साल एआईएफएफ प्लेयर ऑफ द इयर का अवार्ड भी जीता। ऐसे बहुत से अन्य उदाहरण भी हैं जब क्लब लेवल पर बुरे दौर से गुजर रहे खिलाड़ियों पर बॉब ने भरोसा जताया और उन्होंने अपने प्रदर्शन से बॉब के भरोसे को टूटने नहीं दिया। अंतरराष्ट्रीय मित्रतापूर्ण मैचों में मिली पराजयों से प्रभावित ना होते हुये हॉटन ने उन्हीं खिलाड़ियों को एशियन कप के लिये टीम में रखा और टीम इंडिया ने 2011 में कतर में जांबाज प्रदर्शन किया। ज्यादातर मामलों में हम देखते हैं कि क्लब लेवल पर स्टार्स का जन्म होता है, क्लब स्टार्स बनाते हैं लेकिन हॉटन के मामले में ऐसा नहीं था सुब्रतो पॉल,सुनील छेत्री और गौरमांगी सिंह जैसे कई नाम हैं जो हटन की देख-रेख में स्टार बने और अपने खेल से देश को गौरवांगित किया। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि वो बॉब हॉटन ही थे जिन्होंने भारतीय फुटबॉल के प्रतीक बन चुके बाइचुंग भूटिया को कुछ और साल खेलने के लिये राजी किया था। जैसे हॉटन को अपने खिलाड़ियों पर भरोसा था ठीक उसी प्रकार खिलाड़ी भी हटन की बहुत इज्जत करते थे और हमेशा उनके समर्थन में खड़े रहते थे।
बॉब हॉटन के कार्यकाल में भारतीय टीम ने दो बार नेहरू कप में भाग लिया और दोनों बार इस कप को जीता। हालांकि आलोचकों का कहना है कि उस दौर में नेहरू कप में पहले जैसी कड़ी प्रतियोगिता नहीं रह गई थी लेकिन एक टीम जो लगातार बुरा प्रदर्शन कर रही हो उसके लिये इतने प्रतिष्ठित टूर्नामेंट को जीतना बड़ी बात है।  दोनों बार नेहरू कप जीतने से टीम में जीतने की इच्छाशक्ति तो आई ही साथ ही साथ नेपथ्य में पड़े बहुत से खिलाड़ी भी सामने आये और उन्होंने अपने खेल से सबको प्रभावित किया।  2007 में हुये पहले नेहरू कप में भारत के अलावा कंबोडिया,बांग्लादेश कजाकिस्तान और सीरिया ने भाग लिया। इन सारी टीमों में सीरिया इकलौती टीम थी जो फीफा रैंकिंग में भारत से ऊपर थी, जिसे देखते हुये बॉब की टीम से कम से कम फाइनल में पहुंचने की उम्मीद सभी को थी। भारत ने अपने सफर की शुरुआत कंबोडिया को 6-0 से रौदते हुये की और अगले ही मैच में बांग्लादेश को 1-0 से हराया। हालांकि अपने अगले मैच में भारतीय टीम सीरिया से कड़े मुकाबले में 3-2 से हार गई लेकिन अगले ही मैच में टीम इंडिया ने कजाकिस्तान को 3-0 से हराकर फाइनल में अपनी जगह बना ली। फाइनल में उसका मुकाबला सीरिया से था जिसमें एनपी प्रदीप के पहले हाफ में किये गोल की बदौलत टीम इंडिया ने सीरिया को 1-0 से हराकर पहली बार नेहरू कप का खिताब अपने नाम किया।

बॉब हटन की कोचिंग में टीम इंडिया की यह पहली खिताबी जीत थी। उसके बाद सन् 2008 में भारत ने तजाकिस्तान को 4-1 से हरा कर एफसी चैलेन्ज कप जीता,
जिसके बाद वो 2011 में आयोजित होने वाले एएफसी एशियन कप के लिए क्वालीफाईड टीम में शामिल हो गयी। 2009 के नेहरू कप का फॉर्मेट भी पिछली बार की ही तरह राउंड रॉबिन था लेकिन इस बार टूर्नामेंट में कंबोडिया और बांग्लादेश की जगह श्रीलंका और लेबनॉन ने ली थी। टूर्नामेंट में भारत की शुरुआत किसी बुरे सपने की तरह थी जब उसे पहले ही मैच में लेबनॉन से 1-0 से पराजय झेलनी पड़ी। अगले मैच में बॉब हॉटन की टीम ने कजाकिस्तान को 2-1 से हराकर अपने अभियान को पटरी पर लाने की शुरुआत की और अगले ही मैच में श्रीलंका को 3-1 से हराकर फाइनल में पहुंच गया। फाइनल में जगह पक्की होने के कारण आखिरी राउंड रॉबिन मैच में भारतीय कोच हॉटन ने टीम से रेगुलर खिलाड़ियों को आराम दिया और भारतीय टीम सीरिया से ये मैच 1-0 से गंवा बैठी। फाइनल में भारत का मुकाबला सीरिया से ही था। मैच के 90 मिनट तक कोई भी टीम गोल नहीं कर पाई लेकिन एक्स्ट्रा टाइम में रेनेडी सिंह ने शानदार फ्रीकिक पर गोल दागकर भारत को बढ़त दिला दी। हालांकि एक्स्ट्रा टाइम के खत्म होते होते सीरिया के डिफेंडर अली डियाब ने गोल दागकर मैच को फिरसे बराबरी पर ला खड़ा किया। जिसके बाद मैच का फैसला पेनाल्टी शूटआउट में हुआ और शूटआउट में भारतीय गोली सुब्रतो पॉल के शानदार प्रदर्शन के बलबूते भारत ने पेनाल्टी शूटआउट में मैच को 5-4 से जीत लिया, सुब्रतो ने इस मैच में तीन पेनाल्टी किक्स रोकी। और इसी के साथ भारत लगातार दूसरी बार नेहरू कप का विजेता बन गया।
बॉब हॉटन के कार्यकाल की सबसे बड़ी खूबी थी युवाओं को मौके देना। हॉटन ने ही सीनियर टीम में सुब्रतो पॉल,गौरमांगी सिंह, अनवर अली और सुनील छेत्री जैसे युवाओं को मौका दिया और आज यही खिलाड़ी टीम के आधारस्तंभ बने हुये हैं। टीम के भविष्य में विभिन्न आयु वर्ग के खिलाड़ियों की अहमियत को समझते हुये हटन ने एआईएफएफ को 2009 के सैफ कप के लिये अंडर-23 टीम को भेजने की सलाह दी और हॉटन की सलाह पर भेजी गई टीम ने बांग्लादेश में आयोजित सैफ कप को जीतकर उनके फैसले को सही साबित किया। भारतीय टीम ने फाइनल में गत विजेता मालदीव को पेनाल्टी शूटआउट में हराकर खिताब पर कब्जा जमाया। यहां तक कि 2010 एएफसी चैलेंज कप में भी भारतीय अंडर-23 टीम ने भाग लिया हालांकि वो ग्रुप स्टेज से ही बाहर हो गये लेकिन उस टीम के कई सदस्यों के दम पर भारतीय सीनियर टीम एशियन गेम्स के अंतिम 16 तक पहुंचने में कामयाब रही। भारतीय फुटबाल के लिए 2011 का साल एक नई शुरूआत साबित हुआ। साल की शुरूआत में भारतीय टीम ने 27 सालों में पहली बार एएफसी एशियन टूर्नामेंट में हिस्सा लिया। इस मैच में भारत ऑस्ट्रेलियाबहरीन और साउथ कोरिया के साथ ग्रुप सी में था। इस मैच में भारत ने पहला मैच ऑस्ट्रेलिया से खेला थाजिसमें उसे 4-0 से हार मिली। फिर बहरीन से हुए मैच में भी भारतीय टीम को 5-2 से हार का सामना करना पड़ा। इस मैच में सुनील छेत्री और गौरामंगी सिंह ने क्रमशः एक-एक गोल किये।  साउथ कोरिया के साथ अपने फाइनल मैच में भारतीय टीम 4-1 से हार गयीइस मैच में भी सुनील छेत्री ने एकमात्र गोल किया। भारत ने अपने तीन मैचों में कुल 3 गोल किएजिसमें 2 गोल सुनील छेत्री ने किया।
एशियन कप के बाद एआईएफएफ ने  टीम पर काफी मेहनत की। 2012 के एएफसी चैलेन्ज कप के क्वालीफायर मैच में भारत ने चीनी ताइपेपाकिस्तान को हरा कर ग्रुप में बढ़त बना ली। जहां चीनी ताइपे को भारत ने 3-0 से हराया वहीं पाकिस्तान को 3-1 से हराया। क्वालीफायर के तीसरे मैच में भारत ने तुर्कमेनिस्तान से 1-1 से ड्रा खेला। तीनों मैचो में भारत की ओर से 7 गोल दागे गए जिसमें सबसे ज्यादा 3 गोल लाल पेखलुआ ने किया।
अप्रैल 2011 में कोच बॉब हॉटन ने वियतनाम के खिलाफ एक मैच के दौरान एक भारतीय रेफरी से रंगभेदी अभद्रता करने का आरोप लगने के बाद इस्तीफा दे दिया। जिसके बाद मई 2011 में एआईएफएफ  ने अरमैण्डो कोलैको को कोच नियुक्त किया गया।

भारतीय फुटबॉल का नया युग :आईएसएल की शुरुआत
परिचय
इंडियन सुपर लीग जिसका टाइटल प्रायोजक हीरो मोटोकॉर्प है, और इसी वजह से उसे हीरो इंडियन सॉकर लीग के नाम से जाना जाता है,  भारत की प्रोफेशनल फुटबॉल लीग है। यह आई- लीग की तरह ही भारत की प्रमुख राष्ट्रीय लीग है। इसमें पूरे भारत से आठ टीमें भाग लेती हैं। यह लीग अक्टूबर से दिसंबर के बीच में चलती है। भारतीय खेल जगत में फुटबॉल को प्रमुख स्थान दिलाने तथा भारतीय फुटबॉल खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिये सन् 2013 में इस लीग की स्थापना की गई थी। यह लीग भारत की टी20 क्रिकेट लीग आईपीएल तथा अमेरिका की फुटबॉल लीग मेजर सॉकर लीग की तर्ज पर चलती है। विश्व की दूसरी फुटबॉल लीग की तरह इसमें प्रमोशन और रेलीगेशन जैसी व्यवस्था की जगह फ्रेंचाइजी सिस्टम के तहत आठ टीमों की स्थापना की गई है। जो इस लीग में खेलती हैं। इस लीग का पहला सीजन 12 अक्टूबर 2014 से लेकर 20 दिसम्बर 2014 तक चला था। जिसमें एटलेटिको डि कोलकाता ने केरला ब्लास्टर्स को हराकर पहला आईएसएल खिताब अपने नाम किया था।



इतिहास
9 दिसंबर 2010 को ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन ने रिलायंस इडंस्ट्रीज तथा अमेरिकी कंपनी द इंटरनेशनल मैनेजमेंट ग्रुप के साथ 15 साल के लिये 700 करोड़ रुपयों का समझौता किया था। इस समझौते से आईएमजी-रिलायंस को सारे व्यावसायिक अधिकार जैसे- प्रायोजक,विज्ञापन,प्रसारण, साजो-सामान,वीडियो,फ्रेंचाइजी तथा एक नई फुटबॉल लीग की स्थापना मिल गये थे। यह समझौता एआईएफएफ तथा जी स्पोर्ट्स के बीच 10 साल के करार के पांच साल पहले ही (अक्टूबर 2010 में) खत्म हो जाने के बाद हुआ था।
इंडियन प्रीमियर लीग की सबसे पहली अफवाह उस वक्त उड़ी थी जब आई-लीग क्लब के मालिकों तथा एआईएफएफ के बीच संवादहीनता के कारण तनातनी की स्थिति बन गई थी। अफवाहों के मुताबिक आईएमजी-रिलायंस ने आईपीएल तथा अमेरिकी एमएलएस की तर्ज पर आई-लीग के पुनर्गठन की योजना बनाई थी।
25 अप्रैल 2011 को आईपीएल के जैसी पहली फुटबॉल लीग का अनावरण हुआ जब पश्चिम बंगाल की इंडियन फुटबॉल एसोसिएशन ने बंगाल प्रीमियर लीग सॉकर नाम की प्रतियोगिता शुरू की। फैबियो कैन्नावारो,रॉबी फॉउलर, हर्नान क्रेस्पो और रॉबर्ट पाइरेस जैसे बड़े खिलाड़ियों के साथ इस प्रतियोगिता का पहला सीजन 2012 में होना तय हुआ था। लेकिन फरवरी 2012 में इस सीजन को आगे खिसका दिया गया और फिर सन् 2013 में आर्थिक दिक्कतों के चलते लीग को रद्द कर दिया गया।
बंगाल प्रीमियर लीग सॉकर की विफलता के बावजूद एआईएफएफ ने आईएमजी-रिलायंस के आईपीएल की तर्ज पर सन् 2014 में एक और फुटबॉल लीग शुरू करने के प्रस्ताव को इस शर्त पर मंजूरी दे दी कि ये लीग पूरे भारत के स्तर पर होगी।  आई-लीग के मालिकों ने एआईएफएफ के इस फैसले का कड़ा विरोध करते हुये द इंडियन प्रोफेशनल फुटबॉल क्लब्स एसोसिएशन बना ली। जिसके अंतर्गत उन्होंने अपने खिलाड़ियों को आईएमजी-रिलायंस को देने तथा उनसे जुड़े खिलाड़ियों को अपने साथ जोड़ने से मना कर दिया। हालांकि अगस्त 2013 में पता चला कि आईएमजी-रिलायंस ने अपनी जरूरत भर के भारतीय खिलाड़ियों को पहले ही साइन कर लिया था।
तमाम गतिरोधों के बीच 21 अक्टूबर 2013 को आईएमजी-रिलायंस,स्टार स्पोर्ट्स तथा एआईएफएफ ने आधिकारिक रूप से आईएसएल को लांच कर दिया। जिसके खेले जाने की अवधि उन्होंने जनवरी 2014 से मार्च 2014 तय की थी। बाद में 29 अक्टूबर 2013 को आईएसएल को सितंबर तक के लिये आगे बढ़ा दिया गया। अक्टूबर में ही मशहूर इंग्लिश क्लब मैनचेस्टर यूनाइटेड के लिये खेल चुके फ्रेंच स्टार लुईस साहा के रूप में आईएसएल को अपना पहला मार्की खिलाड़ी मिला।
आईएसएल की आठ टीमें तथा उनके मालिक
टीम                                                                          मालिक
एटलेटिको डि कोलकाता
सौरव गांगुली, एटलेटिको डि मैड्रिड हर्षवर्धन नेवतिया, संजीव गोयनका तथा उत्सव पारेख
मुंबई सिटी एफसी
रणबीर कपूर तथा बिमल पारेख
नॉर्थ ईस्ट यूनाइटेड एफसी
जॉन अब्राहम तथा शिलॉंग लजॉंग एफसी
एफसी पुणे सिटी
सलमान खान तथा वाधवान ग्रुप
देल्ही डायनमोज एफसी
डेन नेटवर्क
चेन्नइयन एफसी
अभिषेक बच्चन, महेंद्र सिंह धोनी तथा विता दानी
केरला ब्लास्टर्स
सचिन तेंदुलकर तथा प्रसाद वी पोत्लुरी
एफसी गोवा
विडियोकॉन ग्रुप, दत्तराज सालगांवकर तथा श्रीनिवास डेम्पो


Friday 20 March 2015

सड़ा-गला सिस्टम और मयूक की मौत के बाद एफआईआर लिखाने के लिये किया गया संघर्ष

सिस्टम, जो कभी नहीं बदलता, किसी के लिये नहीं बदलता। और बदले भी क्यों? इस सिस्टम में हर किसी की जगह फिक्स है। थोड़े फायदे के लिये ये सिस्टम के लोग सिस्टम को अपने फायदे के लिये तोड़-मरो़ड़ कर इस्तेमाल करते हैं। पत्रकारिता में दाखिला लेने के बाद बड़ा घमंड था खुद पर और अपनी पढ़ाई पर, गर्व से कहते थे कि मीडिया के स्टूडेंट हैं, पत्रकार हैं सिस्टम से लड़ेंगे और इसे बदलेंगे क्योंकि हमारे पास ताकत है, कलम की ताकत। हम लड़े भी जहां तक हमसे बन पड़ा हमने लड़ाई लड़ी। हम उस निर्भया के लिये इंडिया गेट पर लड़े जिसे हम जानते तक नहीं थे। हमने पुलिस की लाठियां खाईं, आंसू गैस के गोले झेले, ठंड में ठंडे पानी से भरी वॉटर कैनन झेली। इतना सब करने के बाद सोचा था कि अब कम से कम दिल्ली में तो हर किसी को न्याय मिलेगा। दिल्ली पुलिस अब तो चेतेगी, और पार्क में बैठे लड़के-लड़कियों को परेशान करने के अलावा आम लोगों की समस्याओं की तरफ भी ध्यान देगी। आम आदमी की सुनवाई करेगी, लेकिन हम गलत थे। हां हम गलत थे ये जो दिल्ली पुलिस है ना इसकी चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि इस पर ना तो किसी के आंसुओं से कोई फर्क पड़ता है और ना ही किसी की चीख से। इसे किसी का दर्द नहीं दिखता इसे दिखते हैं तो बस नोट, और पार्क में बैठे लड़के-लड़कियां। बीती रात को इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रहने वाला हमारा दोस्त मयूक जोशी इस दुनिया से चला गया। कैसे, क्या हुआ कोई बताने वाला नहीं। हॉस्टल के चीफ वॉर्डन कहते हैं कि वो दिन में मैच जीतकर आया था तो रात को 9वीं मंजिल के ऊपर एक छोटा कमरा है जिसके ऊपर पानी की टंकी टाइप की कोई संरचना है। वो शराब के नशे में(हॉस्टल के अंदर शराब पीकर) उस पर चढ़ा, और गिर गया जिसके बाद (बिना पुलिस को बिना बताये जबकि यूनिवर्सिटी के कैंपस से सटी हुई पुलिस चौकी है) उसे लेकर ये लोग हॉस्पिटल आये जहां रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। सुबह जब मुझे पता चला तो मैं अपने दोस्तों Deep Pilkhwal,Priyagini UpadhayayKhushi AroraRumani Takkar अतुल चंद्राManish RoyMohammad Irfan HussainDinesh Awasthi, देवेंद्र, पूर्णिमा इत्यादि के साथ दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल पंहुचा। जब हम लोग पहुंचे तो डेडबॉडी पोस्टमार्टम के लिये जा चुकी थी। मौके पर ना तो इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी का कोई अधिकारी था और ना ही कोई छात्र। वहां पर बस मयूक की दो सीनियर छात्राएं थीं। मौके पर द्वारका थाने के सब इंस्पेक्टर अशोक कुमार थे जो इस चक्कर में लगे थे कि हम लोग जल्द से जल्द शव को लेकर मयूक के शहर हलद्वानी निकल जायें क्योंकि उनकी ड्यूटी खत्म हो रही थी। जब हमने कहा कि बिना एफआईआर के और बिना यूनिवर्सिटी प्रशासन के आये हम शव नहीं लेंगे तब उन्होंने टाल मटोल शुरू कर दी। बोले कि कुछ नहीं होगा ये वो ऐसा वैसा। इस बीच यूनिवर्सिटी प्रशासन ने आनन-फानन में मयूक का सामान एक गाड़ी में भरवा कर हॉस्पिटल भेज दिया। फिर हमने मीडिया में अपने जानने वालों को फोन करना शुरू किया। इंडिया न्यूज के हमारे साथी प्रशांत सिंह के जरिये हमारी बात विवेक बाजपेयी सर से हुई जिन्होंने मौके पर रिपोर्टर को भेजा। तब तक हम लगभग 50 से भी ज्यादा बार यूनिवर्सिटी प्रशासन को फोन कर चुके थे। और अशोक कुमार को भी पता चल गया था कि हम इतनी आसानी से मानने वाले नहीं हैं। वो कुछ देर के लिये गायब हुये और जब वापस लौटे तो उनके पीछे ही यूनिवर्सिटी के डिप्टी रजिस्ट्रार, मास कॉम डिपार्मेंट के हेड, चीफ वॉर्डन और वॉर्डन वहां आये। और आते ही मनगढ़ंत कहानियां सुनानी शुरू कर दीं। बोले की वो फायर एग्जिट से जरिये उतने ऊपर पहुंच गया था, वो भी शराब पीकर। अब ये समझ नहीं आ रहा कि फायर एग्जिट ऊपर जाने के लिये होती है या बाहर आने के लिये। और बच्चे हॉस्टल में शराब पीते हैं तो आखिर उसे रोकने की जिम्मेदारी किसकी है? अभी पिछले साल ही उसी जगह से गिरकर एक और छात्र की मौत हो चुकी है। उसके बाद भी प्रशासन ने ना तो वो जगह लॉक की और ना ही वहां पर सुरक्षा के कोई इंतजाम किये। यहां तक कि 9 फ्लोर के हॉस्टल में सीसीटीवी कैमरा तक नहीं है। उन्होंने हम पर बॉडी लेने के लिये काफी दबाव बनाया लेकिन जब हम एफआईआर के लिये अड़े रहे तो सब इंस्पेक्टर साहब नई थ्योरी के साथ सामने आये। उन्होंने कहा कि मुझे लिखकर दे दो और बॉडी ले लो मैं थाने जाकर एक घंटे में एफआईआर की कॉपी दे दूंगा। फिर जब हम लिखने लगे तो बोले कि सोच-समझ कर करो जो भी करना है क्योंकि होना तो कुछ है नहीं। बिना वजह गवाही के लिये अदालत और थाने का चक्कर काटना पड़ेगा। किसी तरह से उन्होंने शिकायत ले ली। इस दौरान कई पुलिस वाले आये और गये। और मौके पर मौजूद यूनिवर्सिटी के अधिकारियों से जब हमने वहां के छात्रों की अस्पताल में अनुपस्थिति के बारे में पूछा तो उन्होंने कुछ ही देर में युनिवर्सिटी से 7-8 छात्रों को बुलवा लिया। वो छात्र ना तो मयूक के डिपार्टमेंट के थे ना ही उसके दोस्त थे, यहां तक कि उनमें से बस एक लड़का ऐसा था जो मयूक के फ्लोर पर रहता था। कुछ वक्त बीतने और अशोक जी के क्रियाकलाप देखने के बाद जब हमें लगा कि इनके जरिये कुछ होने वाला नहीं है तो हम उत्तरी जिले में स्थित द्वारका सेक्टर 16बी थाने पहुंचे। वहां हमें एसएचओ अशोक कुमार जी मिले उन्होंने भी तमाम प्रोसीजर गिनाये और मयूक के मामाजी को अपनी गाड़ी में बिठाकर कहीं ले जाने लगे। जब हमने विरोध किया और कहा कि जहां भी जायेंगे हम सब जायेंगे तो वो बोले कि ठीक है यहीं रुको हम डीसीपी से मिलकर आते हैं। फिर वो 45 मिनट बाद आये और एप्लीकेशन फिर से लिखवाई और बोले कि एक घंटे रुकिये फिर उसके बाद आपको एफआईआर की कॉपी मिल जायेगी। डेढ़ घंटे से ज्यादा समय बीतने के बाद जब कुछ नहीं हुआ तो हमने किसी तरह लिंक जोड़कर एक न्यूज चैनल से एक भइया को बुलवाया जो कि एसएचओ महोदय के बैचमेट एक दूसरे एसएचओ के छोटे भाई हैं। वो अपने साथ उन एसएचओ को महोदय को भी लेकर आये। उनके आने के थोड़ी देर बाद एक कांस्टेबल ने आकर मयूक के नाम की स्पेलिंग पूछी। और फिर लगभग एक घंटे में हमें एफआईआर की कॉपी मिली। सिर्फ एक एफआईआर लिखाने के लिये हमें कुल मिलाकर हम 4 घंटे से भी ज्यादा समय तक द्वारका सेक्टर 16बी थाने में खड़े रहना पड़ा।
इतनी मशक्कत के बाद अगर एफआईआर दर्ज हुई तो इस हाल में हम कैसे उम्मीद करें कि निष्पक्ष जांच होगी और हमें अपने दोस्त की मौत के पीछे के असली कारण का पता चल पायेगा?
खैर ये लड़ाई लंबी चलेगी और हम अंत तक लड़ेंगे। मयूक को इंसाफ जरूर मिलेगा।

Thursday 19 March 2015

It Was Messi VS City & You Know... No One Can Stop The Little Magician

18 March: Camp nou Barcelona. Semi qurater final match of the UEFA Champions League played between Luis Enrique's Barcelona and M. Pellegrini's Manchester City. The match was full of excitement. both teams tried there best to win the match. But finally team Barcelona won the match by 1-0.
City's captain Vincent Kompany played a horrible game that's why his team suffered a lot in this match. In the 6th minute of the match Barcelona's Neymar Jr tried to find the net from inside of the penalty area, but his shot was not accurate enough as the ball hit hard at the inner left side of the goal post and went away. At the 14th minute of the game City's Toure Yaya passed the ball to James Milner who was  infront of goal but thanks to superb defending from Jordi Alba who dived and took the ball away from Milner.
Barcelona's players were playing attacking game & the next moment  Neymar was fouled by Fernandinho, who received the first yellow card of the match. After getting the free kick Messi tried to find the net but his shot was high & missed the left top corner. both teams were trying to score but no one succeed. In 27 minuets of the game Manchester City's David Silva tried to tackle Messi from behind and the referee called it a foul.  Barcelona got another free kick following the yellow card of Silva. But Messi again missed it by playing the similar shot. 
City's players made a good team move near the box of Barcelona at 31 minute of the game but the defenders were quick enough to snatch the ball from Samir Nasri. Dani Alves got the ball from him and made a quick run towards City's half, he passed the ball to Messi, Messi gave a good high ball forward to Ivan Rakitic who was inside the box. Rakitic received the ball on his chest and make it 1-0 for Barcelona.
Just three minutes after this goal, Barcelona got a good chance to score after Yaya Toure's foul on Suarez. This time Rakitic took the free kick but he missed the chance by kicking the ball very high from the goalpost. Just before halftime Barca striker Suarez missed a very good chance to score when, Neymar passed the ball by taking advantage of Kompany and Demichelis's mistake of giving a big gap between them. Suarez got the ball and beat the goal keepar Joe Hart by with a chip shot but it was too close, ball hit the post. After few moments Toure Yaya tried to score but his shot was too high. At the closing moments of first half Manchester City's Striker Kun Aguero got a very good chance of equaliser but Barca's defenders were too quick, they cleared the ball very safely and City forced to corner kick.
The beginning of second half was very exiting for Barca. as they tried to find the net four time in the first 4 minutes of second half, but thanks to Joe Hart who denied Jordi Alba everytime, Iniesta and Messi.
Later on City missed a very easy chance to equalize when Aguero's penalty was stopped by Barca Goal keeper Ter Stegen.
Both teams played good football but Barcelona had "MESSI".

Tuesday 17 March 2015

मैच जीतकर भी बाहर हुई आर्सेनल






17 मार्च: स्टैड लुईस-2 (मोनैको) :  यूईएफए चैंपियंस लीग के इस सेमी क्वार्टरफाइनल के शुरू होने से पहले ही आर्सेनल को पता था कि उन्हें हर हाल में ये मैच कम से कम तीन गोल के अंतर से जीतना है। उन्होंने प्रयास भी किये मोनाको को एक भी गोल नहीं करने दिया लेकिन वो खुद भी तीन गोल नहीं कर पाये। नतीजे के तौर पर उन्हें लगातार पांचवे साल चैंपियंस लीग के सेमी क्वार्टरफाइनल से बाहर हो जाना पड़ा।
मोनैको के घरेलू मैदान पर खेले गये इस मैच पर आर्सेनल ने शुरू से ही अपना दबदबा बनाये रखा। मैच के कुल 90 मिनट में आर्सेनल के पास 70 % से भी ज्यादा वक्त तक गेंद रही यानि कि गेंद पर कब्जा तो उनका रहा लेकिन मिले मौकों को भुना ना पाने के कारण उन्हें ये मैच जीतकर भी बाहर हो जाना पड़ा। मैच में आर्सेनल को कुल 5 कॉर्नर मिले लेकिन एक भी कॉर्नर को वो गोल में नहीं बदल पाये। तो वहीं मैच के शुरुआती क्षणों में एलेक्सिस सांचेज के एक खूबसूरत पास को डैनी वेलबैक ने यूं ही गंवा दिया। इस मैच में वेलबैक ने कम से कम दो आसान मौके गंवाये जिसका खामियाजा आर्सेनल को चैंपियंस लीग से बाहर होकर उठाना पड़ा। आर्सेनल की तरफ से मैच का पहला गोल ओलिवर गिरोउड ने किया। मैच के 36वें मिनट में डैनी वेलबैक के क्रॉस को गिरोउड ने जाल में उलझाने की कोशिश की लेकिन मौनेको के गोलकीपर डैनिजेल सुबासिक ने गिरोउड के शॉट को शानदार तरीके से रोक लिया। लेकिन सुबासिक के स्टॉप के बाद जब गेंद उछली तो सीधे गिरोउड के पास आई और आर्सेनल के इस फ्रेंच स्टार ने इस बार बिना कोई गलती करते हुये गेंद को गोलपोस्ट में डाल दिया। इस गोल के बाद दोनों टीमों ने कई मौके बनाये लेकिन किसी को भी गोल करने में सफलता नहीं मिली। मैच के 63वें मिनट में सब्सीट्यूट के तौर पर आये आरोन रामज़ी ने 79 मिनट में थियो वॉल्कॉट के शॉट पर पोस्ट से लगकर वापस आती गेंद सीधे जाल में अटका दिया। हालांकि इस गोल में मोनैको के डिफेंडर कुरजावा का भी काफी योगदान रहा जो कि गेंद को क्लीयर नहीं कर पाये और उन्होंने उसे सीधे रामज़ी के पैरों पर भेज दिया। रामज़ी ने इस मौके को बखूबी भुनाया और गेंद को सीधे जाल में अटका दिया। इस गोल के बाद जहां मौनैको ने कुछ चांसेज बनाये तो वहीं आर्सेनल की टीम थकी थकी नजर आई। अंत में मोनैको ने इस मैच को तो गंवा दिया लेकिन अवे गोल रूल के आधार पर बाजीगर बनते हुये चैंपियंस लीग के क्वार्टरफाइनल में जगह बना ली।

Friday 13 March 2015

चेल्सी का यूं चैंपियंस लीग से बाहर हो जाना

स्टैम्फोर्ड ब्रिज में चेल्सी और पीएसजी के बीच खेले गये चैंपियंस ट्रॉफी के सेमी क्वार्टर फाइनल मुकाबले में पीएसजी ने चेल्सी से 2-2 से ड्रॉ खेलकर अवे गोल रूल के आधार पर क्वार्टर फाइनल के लिये क्वालीफाई कर लिया।  मुकाबला कितना कड़ा था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रेफरी ब्जोर्न कुइपर को मैच में कुल 7 येलो और एक रेड कॉर्ड दिखाना पड़ा।
मैच की शुरुआत से ही दोनों टीमों ने ज्यादा से ज्यादा अटैकिंग फुटबॉल खेलने पर जोर दिया। जिसके फलस्वरुप मैच के 31वें मिनट में ही रेफरी को पीएसजी के स्टार स्ट्राइकर ज्लाटन इब्राहिमोविक को चेल्सी के मिडफील्डर ऑस्कर पर किये गये गंभीर फाउल के लिये रेड कार्ड दिखाते हुये मैच से बाहर करना पड़ा। जिसके  चलते पीएसजी को पूरे मैच में 10 खिलाड़ियों के साथ खेलना पड़ा। चेल्सी के लिये इस मैच का पहला गोल डिफेंडर गैरी केहिल ने किया, मैच के 81वें मिनट में मिले कॉर्नर पर फैब्रेगास की किक को पीएसजी के कप्तान थिएगो सिल्वा ने हेडर के जरिये लगभग क्लीयर ही कर दिया था। लेकिन उनके हेडर से उछली गेंद गैरी के पास आ गई जिस पर उन्होंने करारा शॉट जमाकर पीएसजी के गोली सिरिगु को आश्चर्यचकित कर दिया। शॉट इतना तेज था कि सिरिगु को हिलने तक का मौका दिये बिना गेंद जाल में जा चुकी थी। इस गोल से मैच चेल्सी की तरफ झुकता दिख रहा था लेकिन, लगभग चार मिनट बाद ही चेल्सी के लिये खेल चुके पीएसजी के ब्राजीली डिफेंडर डेविड लुइज ने अर्जेंटीनी फॉरवर्ड लवेज्जी द्वारा ली गई कॉर्नर किक पर तूफानी हेडर से गोल जमाकर पीएसजी के प्रशंसकों को सीट से उछलने पर मजबूर कर दिया। हालांकि उनके इस गोल से चेल्सी के मैनेजर जोस मॉरिन्हो जरूर निराश हुये। लुइज के इस गोल से मैच को लगभग हार चुकी पीएसजी के लिये उम्मीद की एक किरण दिखने लगी। निर्धारित समय तक मैच 1-1 से बराबर रहा जिसके कारण मैच को अतिरिक्त समय में ले जाना पड़ा। अतिरिक्त समय के पहले हाफ के 5वें मिनट यानि कि मैच के 95वें मिनट में चेल्सी के स्ट्राइकर डिएगो कोस्टा ने गेंद को पीएसजी के बॉक्स में उछाला जिसे क्लीयर करने के प्रयास में उछले थिएगो सिल्वा का हाथ गेंद को छू गया,जिसके चलते चेल्सी को पेनाल्टी मिल गई। इस मौके का फायदा उठाते हुये इडेन हजार्ड ने पीएसजी के गोली सिरिगु को छकाकर शानदार गोल दागते हुये चेल्सी को फिर से आगे कर दिया। इस गोल के बाद पीएसजी के समर्थकों ने चैंपियंस लीग में अपने सफर को लगभग समाप्त ही मान लिया था। लेकिन मौजूदा समय में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ डिफेंडर औऱ पीएसजी के कप्तान थिएगो सिल्वा इस मैच में कुछ और  ही सोचकर उतरे थे। अतिरिक्त समय के दूसरे हाफ में अंतिम क्षणों में जब मैच अपने अंत की तरफ बढ़ रहा था कि तभी 113वें मिनट में थिएगो मोट्टा के लिये कॉर्नर पर सिल्वा ने ऊंचे हेडर के जरिये गेंद को गोलपोस्ट के दाहिने किनारे की तरफ अटका दिया और इसी के साथ चेल्सी के खिलाड़ियों, प्रशंसकों के साथ ही मैनेजर जोस मॉरिन्हो की सांसें भी अटक गईं। मैच के बाकी वक्त में दोनों टीमों ने गोल करने की भरसक कोशिश की लेकिन कोई भी टीम बढ़त लेने में कामयाब नहीं हुई और मैच 2-2 से ड्रॉ हो गया। इसी के साथ चेल्सी चैंपियंस लीग से बाहर भी हो गई और पीएसजी अवे गोल्स के आधार पर क्वार्टर फाइनल में जगह बना ली।

अवे गोल रूल-- इस रुल के मुताबिक दोनों टीमों के बराबर अंक होने अर्थात अगर दोनों टीमें एक-एक मैच जीत लेती हैं या फिर दोनों ही मैच बराबर छूटते हैं तो फिर अवे यानि की विपक्षी टीम के मैदान पर किये गोलों की संख्या के आधार पर बढ़त लेने वाली टीम आगे जाती है।
चूंकि इस लीग के हर दौर में दोनों टीमों को एक मैच अपने तथा एक मैच विपक्षी टीम के मैदान पर खेलना होता है।

Friday 6 March 2015

भारत की बेटी

16 दिसम्बर 2012 की घटना को काफी वक्त बीत चुका है। इस दौरान यमुना में ना जाने कितना पानी बह गया और दिल्ली में ना जाने कितनी लड़कियों का बलात्कार हुआ, सरकारें आईं और चली गईं। इस दौरान दिल्ली में और देश में भी बहुत कुछ बदला। अगर कुछ नहीं बदला तो वो है महिलाओं के प्रति समाज का रवैया। दिल्ली गैंगरेप से पहले भी हमारे यहां महिलाएं भोग की वस्तु थीं और आज भी हैं। अफसोस तो इस बात का है कि इतनी घटनाओं के बाद भी हम महिलाओं को बुरी नजर से ही देखते हैं। और ऐसे में बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री में मुकेश द्वारा दिया गया बयान कि ताली एक हाथ से नहीं बजती हमारे समाज में महिलाओं के प्रति पुरुषों की सोच को साफ दिखाता है। उसी डॉक्यूमेंट्री में मुकेश और अन्य आरोपियों के वकीलों एम एल शर्मा और एपी सिंह का कहना है कि महिलाएं घर की चारदीवारी में ही सुरक्षित हैं। और रात में तो उनका बाहर निकलना गुनाह है। ऐसा गुनाह जिसके बदले उनका रेप भी हो जाये तो उसके लिये वो ही जिम्मेदार हैं।  समझ नहीं आता कि कमी कहां है? हमारी शिक्षा प्रणाली में या सामाजिक संरचना में ? क्योंकि शिक्षित और अनपढ़ या कम पढ़े लिखे लोगों की सोच में ज्यादा अंतर नहीं दिखता। और निंदनीय तो ये भी है कि हमारी सरकार ने उस सोच का फैलाव रोकने के लिये सच दिखाने पर ही रोक लगा दी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में महिलाओं से संबंधित अपराधों की संख्या 309546 दर्ज की गई थी। जिसमें से 33707 मामले बलात्कार के थे। मेट्रो सिटीज में प्रति एक लाख की जनसंख्या पर सबसे ज्यादा रेप दिल्ली में होते हैं तो वहीं अगर ओवरऑल बात करें तो प्रति एक लाख की जनसंख्या पर सबसे ज्यादा रेप मिजोरम में होते हैं उसके बाद त्रिपुरा, मेघालय, सिक्किम, असम का नंबर आता है। बाकी राज्यों के हालात भी बहुत बेहतर नहीं हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि पूरे देश में महिलाओं की स्थिति कितनी खराब है। और सरकारें उस स्थिति को सुधारने की जगह सच को दिखाने पर ही रोक लगा रही हैं। क्या होता अगर उस ड़ॉक्यूमेंट्री का प्रसारण हो जाता ? कम से कम हमारे देश की महिलाओं को तो पता चलता कि वो कहां रह रही हैं? उनके देश के पुरुषों की सोच कैसी है, वो दुर्गा की तो पूजा करते हैं लेकिन सामने दिखने वाली हर लड़की को छेड़ना अपना धर्म समझते हैं। अब वक्त आ गया है कि नेताओं को बता दिया जाय कि महिला सशक्तिकरण पर सिर्फ भाषण देने से काम नहीं चलेगा, धरातल पर प्रयास करने होंगे। और लगे हाथ उन लोगों को भी चेतावनी दे दी जाय जो मुकेश या उसके वकीलों की तरह सोचते हैं। कि अब भी वक्त है सुधर जाओ वर्ना 5 मार्च 2015 की तारीख को नागालैंड में जो हुआ वो बाकी देश में भी हो सकता है।

Friday 27 February 2015

क्या इसी देश का सपना देखा था "आजाद" ने ??

कायदे (कानून) तोड़ने के लिये एक छोटे से लड़के को, जिसकी उम्र १५ या १६ साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते थे और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वह 'भारत माता की जय!' चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लड़का उत्तर भारत के आतंककारी  कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना। पं० जवाहरलाल नेहरू(साभार विकीपीडिया)

नेहरू कुछ भी कहें लेकिन भारत की स्वतंत्रता में आजाद का योगदान अतुलनीय था। सीमित संसाधनों में उन्होंने देश के लिये जो किया उसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। उसे करने के लिये तो हम सोच भी नहीं सकते क्योंकि नई पीढ़ी को देश से कोई मतलब ही नहीं है। और गांधी नेहरू की जोड़ी को तो देश के आजाद होने या ना होने से भी कोई खास मतलब नहीं था। जहां गांधी एक अच्छी सरकार चाहते थे जिसे कौन चला रहा है उससे उन्हें कोई मतलब नहीं था, तो वहीं नेहरू को सत्ता में हिस्सेदारी से मतलब था।
ऐसे नेताओं के भरोसे तो हम कभी आजाद हो ही नहीं पाते, वो तो भला हो आजाद,शहीद-ए-आजम, और बाकी क्रांतिकारियों का कि उन्होने प्राणों की आहुति देकर हमें आजाद कराया। और बदले में हमने उन्हें क्या दिया ? आजाद भारत को एक भ्रष्ट,सांप्रदायिक देश बना दिया। वो देश जिसे अपने इतिहास पर ना तो गर्व है और ना ही उसकी कोई चिंता,वो देश जो मांगी हुई भाषा, संस्कार, संस्कृति और परम्पराओं के पीछे अंधी दौड़ लगा रहा है। और अपनी परम्पराओं,संस्कारों, भाषाओं और संस्कृति की बात करने में शर्मिंदगी महसूस करता है। क्योंकि युवाओं के इस देश के नागरिकों को लगता है कि ये सब दकियानूसी बातें हैं।
इन शहीदों ने भारत को एक समाजवादी देश बनाने का सपना देखा था जहां हर नागरिक को बराबरी के अधिकार मिलें। लेकिन यहां तो अमीरों के लिए अलग और गरीबों के लिए अलग कानून है। और समाजवाद के नाम को बेचकर नेता अपने पारिवारिक आयोजनों पर अरबों रुपये उड़ा रहे हैं। पहले अंग्रेजी अदालते थीं जहां हिन्दुस्तानियों को न्याय नहीं मिलता था और अब अपनी अदालतें होने के बाद भी अमीर जैसा चाहते हैं वैसा फैसला आ जाता है। हालांकि इसमें अदालतों की कोई गलती नहीं है ना ही मैं उन पर सवाल उठा सकता हूं। लेकिन कानून की छोटी-छोटी कमियों और कुछ भ्रष्ट अधिकारियों, वकीलों के चलते आज हालात ये हैं कि गरीबों का तो कानून से भरोसा ही उठ गया है। और अमीर उसका जैसा चाहते हैं वैसा इस्तेमाल करते हैं।
आजादी के 6 दशकों से भी ज्यादा वक्त गुजरने के बाद भी देश के ज्यादातर लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है, शौचालयों की उपलब्धता तो सभी जानते ही हैं। सड़कें या तो हैं नहीं और अगर हैं तो पहचानना मुश्किल है कि सड़क में गढ्ढे हैं या गढ्ढों में सड़क। बहुत से गांवों में आज भी बिजली नहीं है, और जहां है वहां तो कब आती है और कब जाती है उसका पता ही नहीं चलता। किसानों को फसल उगाने से पहले तो खाद,बीज और पानी के लिये परेशान होना पड़ता है, और फसल उगाने के बाद उसके उचित दाम पाने के लिए। जहां महिलाएं आज भी सुरक्षित नहीं हैं और देश के लिए सीमा पर खड़े सैनिकों की जान की तो कोई कीमत ही नहीं है।
नेताओं का परम् ध्येय है सिर्फ पैसे कमाना और अपने परिवार और रिश्तेदारों की बढ़ोत्तरी देश से तो किसी को कोई मतलब ही नहीं है।

ये आजाद के सपनों का देश नहीं हो सकता, बिल्कुल नहीं हो सकता। लेकिन इसकी इस हालत के जिम्मेदार भी तो हमीं हैं। एक वो थे जो 24 साल की उम्र में देश पर कुर्बान हो गये थे और एक हम हैं जिन्हें देश से कोई मतलब ही नहीं। अब वक्त आ गया है कि हमें एकजुट होकर भारत देश को उन शहीदों के सपनों का देश बनाने के लिये पूरी ताकत से जुटना होगा। हमारी तरफ से भारत मां के इस सपूत को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
आजाद जी को नमन्

Monday 23 February 2015

सॉरी

सॉरी पापा मैं गलत था, आप हमेशा सही कहते थे, काश मैंने आपकी बात मान ली होती। लेकिन अब क्या हो सकता है? अब तो मैं इतना आगे निकल आया हूं कि वापस लौट नहीं सकता और आगे जाने की अब ना तो हिम्मत है और ना ही हौंसला। चार साल की इस यात्रा में मीडिया ने इतने दर्द दिये हैं जिसकी बात सोचकर अब तो रोना भी नहीं आता, क्योंकि इस पेशे में ज़ज्बातों के लिये कोई जगह नहीं है। और वैसे भी अगर मैं असफलता से डर कर रोने बैठ गया तो मुझे खुदको आपका बेटा कहने का कोई हक नहीं है। मुझे आज भी याद हैं आपके वो संघर्ष भरे दिन जब आप हमारे बेहतर भविष्य के लिये खाने सोने की परवाह किए बिना दिन-रात काम करते थे, इस उम्मीद में कि जल्द ही मैं बड़ा होकर आपका सहारा बनूंगा। लेकिन अफसोस बड़ा होकर आपका सहारा बनने के बजाय मैंने आपको और ज्यादा संघर्ष करने के लिये मजबूर कर दिया। जिस वक्त आपको मेरी सबसे ज्यादा जरूरत थी उस वक्त मैंने सिर्फ अपने लिेये सोचते हुये आपका सहारा बनने के बजाय नीरज का भी भविष्य दांव पर लगाते हुये आपको और ज्यादा मेहनत करने पर मजबूर कर दिया। सॉरी पापा आप सही कहते थे मैं ना तो अच्छा बेटा हूं और ना ही अच्छा इंसान। रही बात टैलेंटेड होने की तो वो घमंड भी पूरी तरह से चकनाचूर हो गया। जिस लेखनी के दम पर मैं 2 साल से हर किसी को चैलेंज करता आ रहा था, वो इतनी घटिया है इसका अंदाजा भी नहीं था मुझे। सॉरी पापा मैंने आपकी मेहनत के लाखों रुपये ऐसे ही उड़ा दिये। मुझे पता है पापा आप बहुत दिनों से नई कार लेने की सोच रहे हैं लेकिन मेरी पढ़ाई की वजह से आप बस सोच ही पा रहे हैं। सॉरी नीरज मेरी वजह से तुम्हारे बहुत से सपने अधूरे ही रह गये। स़़ॉरी अंकल मैं आपका आदर्श बेटा नहीं बन पाया। सॉरी मम्मी मेरी वजह से आपने पापा से बहुत बार लड़ाई की, लेकिन आपकी उस लड़ाई के बदले में मैं आपको गर्व का एक क्षण भी नहीं दे पाया। सॉरी दोस्त मैं तुम्हारे भरोसे पर बिल्कुल भी खरा नहीं उतर पाया। स़़ॉरी वरुण सर अब मैं आपका फेवरेट स्टूडेंट कहलाने के लायक नहीं रहा।
"सॉरी"

Monday 9 February 2015

"आप" को देखकर देखता रह गया...

जी हां जनता को कुछ यही लगा था जब आप राजनीति में आये थे। आपने वादे ही इतने बड़े-बड़े किये थे। वीआईपी कल्चर को खत्म करेंगे,बिजली,पानी मुफ्त(सस्ती) करेंगे, भ्रष्टाचार का अंत करेंगे। अंबानी-अदानी को जेल भेजेंगे और सच्चाई से परिपूर्ण आचरण करेंगे। बातें तो आपने और भी बहुत सी की थीं लेकिन आपका ज्यादा ध्यान भ्रष्टाचार को मिटाने पर था। या यूं कहें कि आपकी लड़ाई का आधार ही भ्रष्टाचार मिटाना था। आपकी सभाओं में नारे भी लगते थे "भ्रष्टाचार का एक ही काल, केजरीवाल,केजरीवाल" पहले आपने कांग्रेस को भ्रष्टाचारी घोषित किया,हमने यकीन भी कर लिया क्योंकि दशकों तक केंद्र में और 15 सालों से दिल्ली में कांग्रेस का ही राज था और घोटाले अपने चरम पर थे। कॉमनवेल्थ गेम्स,टूजी,कोल ब्लॉक, जैसे अनगिनत घोटालों का खुलासा हो रहा था। और आपकी अन्ना के साथ मिलकर शुरू की गई मुहिम के चलते पूरा देश करप्शन के खिलाफ अभूतपूर्व गुस्से में था जिसको भुनाने के लिये आपने अपना राजनैतिक दल बना लिया जिसका नाम आपने रखा "आम आदमी पार्टी" । आपके काम और पार्टी के नाम को देखकर बड़ी उम्मीदें जगीं। दबे कुचले लोगों को लगा कि अब उनके दिन बहुरने वाले हैं क्योंकि उनके हित की राजनीति करने वाला आ गया है। और भ्रष्टाचारियों को उनके दिन पूरे होते दिखे। दिल्ली में चुनाव हुये और जनता ने आपको 28 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुना। आपने कहा कि हम विपक्ष में बैठेंगे क्योंकि हमारे पास सरकार बनाने के लिये आवश्यक संख्याबल नहीं है। और उससे पहले ही आपने अपने बच्चों की कसम खाई थी कि ना तो किसी से समर्थन लेंगे और ना ही किसी को समर्थन देंगे। लेकिन धीरे-धीरे परिस्थितियां बदलीं और आपने पता नहीं किस जनता से पूछकर(क्योंकि जनता की राय का खुलासा आपने नहीं किया था) कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली। जी हां उस कांग्रेस के समर्थन से जिसे आप सबसे बड़ी भ्रष्टाचारी पार्टी मानते थे। चुनावों के दौरान आप बार बार तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ 370 पेज का सबूत लहरा कर सरकार बनते ही उनपर मुकदमा ठोंकने की बात करते थे। फिर आपने उन्हीं शीला जी की पार्टी के समर्थन से सरकार बनाई और सारे सबूत लुप्त हो गये। आपने कहा था कि सत्ता में आते ही बिजली कंपनियों का ऑडिट कराकर भ्रष्टाचारियों को जेल भेजेंगे। आपने सत्ता में आने के बाद ऑडिट का ऑर्डर तो दिया लेकिन आपके 49 दिवसीय कार्यकाल में वो ऑडिट पूरा नहीं हुआ। सत्ता में आने से पहले आप भ्रष्टाचारियों को जेल भेज रहे थे सत्ता में आने के बाद आपने कहा कि जो आपसे रिश्वत मांगे उसका स्टिंग करके हमारे पास लाओ तब हम कार्यवाही करेंगे। अब आपको कौन समझाये कि जनता को स्टिंग करने की ट्रेनिंग नहीं मिली है। अगर कुछ गड़बड़ हो जाये तो बेचारी जनता को भ्रष्टाचारी जान से भी मार डालेंगे क्योंकि अगर वो सरकारी ऑफिसर की जान ले सकते हैं तो जनता का तो वैसे भी कोई माई-बाप नहीं होता। आपने बिजली पानी के दाम कम किये ये सराहनीय कदम था लेकिन मान्यवर ये स्लैब बनाकर दाम कम करने की बात तो आपने नहीं की थी। 666 लीटर पानी मुफ्त और उसके बाद का पानी पहले के रेट से भी ज्यादा रेट पर। बिजली के शुरूआती 200 यूनिट सस्ते, 200-400 उससे महंगे और फिर और महंगे। अब आप ही बताओं कि 4 लोगों का परिवार 200 यूनिट बिजली और 666 लीटर पानी में कैसे गुजारा कर सकता है ? और दिल्ली के लगभग 50 % इलाकों में अगर पानी की लाइन ही नहीं है तो उन्हें इस योजना से क्या लाभ हुआ? जबकि इस योजना की सबसे ज्यादा जरूरत उन्हें ही है। साहब आपने जीतने से पहले कहा था कि आप और आपके साथी बंगला-गाड़ी नहीं लेंगे। जीतते ही आपने गाड़ियां भी लीं और वीआईपी नंबर भी। आपके बंगले की कहानी तो सभी को पता है। इस्तीफे के बाद भी आपने बंगला नहीं खाली किया और लगभग  2.58 लाख रुपये हर महीने किराया चुकाया, आप खुदको आम आदमी कहते हैं अच्छी बात है। लेकिन श्रीमान, क्या इस देश का आम आदमी इतने रुपये सिर्फ रहने पर खर्च कर सकने की हालत में हैं ? जी नहीं बल्कि इतने पैसों में एक आम आदमी अपनी बेटी की शादी निपटा देता है। आपने कहा था कि सत्ता में आते ही हम रोज लोगों की समस्याएं खुद सुनेंगे। आपने कोशिश भी की लेकिन अपनी आदत से मजबूर आप भागकर सचिवालय की छत पर पंहुच गये। आपके मंत्री सोमनाथ भारती जी जो कि वकालत करने के साथ ही पोर्न साइट्स भी चलाते हैं। आधी रात को शहंशाह बनकर रेड मारने निकल लिये और महिलाओं को सबके सामने पेशाब करने के लिये मजबूर किया, एम्स तक पीछा करके उनका यूरीन टेस्ट कराया। श्रीमान ये कैसा स्वराज है ? मुख्यमंत्री रहते हुये आप धरने पर बैठ गये वो भी तब जबकि गणतंत्र दिवस नजदीक था। आपके हिसाब से देश के गणतंत्र दिवस से ज्यादा जरूरी आपका धरना था जिसके लिये आपने  महिला सुरक्षा को मुद्दा बनाया था। आपको पता है अरविंद जी कि आपके इस धरने को पाकिस्तान के न्यूज चैनेल कैसे दिखा रहे थे ? वहां लोगों का कहना था कि जो काम हम इतने सालों में नहीं कर पाये वो अरविंद ने आते ही कर दिया। भारत मे अराजकता का माहौल बना दिया। गणतंत्र दिवस खतरे में आ गया था। लेकिन कुछ भी हो आपका मीडिया मैनेजमेंट जबरदस्त है। धरने में कब आप सड़क पर एक रजाई में सो रहे हैं और उसका कौन सा फ्रेम सही रहेगा उसका बेहद शानदार तरीके से ख्याल रखा था मीडिया ने। जब आपने मंच से खुद को अराजक कहा तो आपको क्या लगता है कि आप हीरो बन गये ? नहीं अरविंद आप हीरो नहीं नक्सली बन गये क्योंकि आप और वो दोनों संविधान का अपमान करना अपना हक समझते हैं। बस फर्क इतना है कि वो कम पढ़े लिखे हैं और हथियारों के दम पर संविधान का मखौल उड़ाते हैं और आप इंजीनियर और आईआरएस रह चुके हैं तो बोलकर। जब मुख्यमंत्री के तौर पर आप झंडारोहण करते हैं तो उसे सलामी नहीं देते और जब आपको गणतंत्र दिवस के लिये आमंत्रित नहीं किया जाता तो आपको बुरा लगता है। जब आपको लगा कि आपने जो वादे किये थे वो पूरे नहीं कर पायेंगे तो आपने जनलोकपाल बिल का बहाना बनाकर इस्तीफा दे दिया। जनलोकपाल बिल पारित कराने में इतनी जल्दबाजी किस बात की ? जनलोकपाल से ना तो लोगों को खाना मिलेगा ना घर और ना ही सस्ती बिजली,पानी। फिर उसके लिये दिल्ली वासियों के सपनों से मजाक क्यों ? सिर्फ इसलिये कि आपको मुगालता हो गया था कि आप पीएम बन सकते हैं ? बस दिया इस्तीफा और निकल पड़े वाराणसी वाया ट्रेन जेब में 500 रुपये लिये। जमकर प्रचार किया लगभग पौने 4 लाख वोटों से हारे और फिर विमान से वापस आये जबकि आपके चमत्कारिक 500 रुपये फिर भी बचे रह गये। आपकी लड़ाई भ्रष्टाचार से थी लेकिन ये लड़ाई कम से कम मेरी समझ में तो नहीं आई। सिर्फ खुलासे कर के आप क्या साबित करना चाहते हैं ? और ये जो आप ईमानदारी के प्रमाणपत्र बांटते हैं उसे पाने का क्या तरीका है? आम आदमी पार्टी की सदस्यता के साथ फ्री मिलता है ? आपके हिसाब से तो इस ब्रह्मांड में एक आप ही ईमानदार हैं बाकी सब चोर हैं,भ्रष्ट हैं। आप चाहे जो कहें लेकिन सच तो ये है कि, अरविंद जी आप सिर्फ नकारात्मक राजनीति करते हैं और कुछ नहीं।


Monday 26 January 2015

IIMC में महत्वहीन भारतीय गणतंत्र


ये है भारतीय जनसंचार संस्थान(IIMC) जहां कि भारत के साथ ही विश्व के सुदूर कोनों से भी लोग पत्रकारिता पढ़ने आते हैं। और ये तस्वीर है 26-01-2015 सुबह 11:20 बजे की जहां भारत के हर कोने में गणतंत्र दिवस की धूम थी। हर तरफ झंडारोहण हो चुका था और मिष्ठान्न वितरण के बाद लोग विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनन्द उठा रहे थे। हम आईआईएमसी में पढ़ने वाले बच्चे जो कि छात्रावास में रहते हैं। रोज की तरह नाश्ते पर इकट्ठा हुये। आमतौर पर मैं नाश्ता नहीं करता महीनों में कहीं एक बार कर लिया तो कर लिया, लेकिन आज मैं सुबह बहुत जल्दी उठ गया था क्योंकि आज गर्व का दिन था, जश्न मनाने का दिन था। नाश्ते पर मेरी बात हुई नीरज से वो बोला कि यार कोई तैयारी नहीं दिख रही अपने यहां। मैंने कहा यार यहां 15 अगस्त को 11 बजे के बाद ध्वजारोहण हुआ था, हो सकता है आज भी वही हो। फिर संस्थान में उपस्थित कर्मचारियों से बात की तो पता चला कि यहां 26 जनवरी को कोई समारोह नहीं होता। थोड़ी निराशा हुई और ज्यादा दुख। फिर हमने सोचा कि 11 बजे तक देख लेते हैं फिर करते हैं जो करना है। लेकिन 11:20 तक कुछ नहीं हुआ तो हम निकल पड़े झंडे की तलाश में। हालांकि मेरी जेब में पड़े हुये आखिरी 200 रुपये इस बात की इजाजत तो नहीं दे रहे थे कि हम ऐसा करें, लेकिन हम निकल पड़े ये सोचकर कि ये दिन बार-बार नहीं आता। मैं,नीरज प्रियदर्शी और हमारे अनन्य सहयोगी महापंडित(राहुल सांकृत्यायन) पैदल नजदीकी बाजार कटवरिया सराय पंहुचे पूरा बाजार छान मारा लेकिन एक अदद झंडा नहीं मिला। हमने वहां चाय पी और विचार किया कि आज तो झंडा लेकर ही चलना है। फिर हम वहां से निकले और पंहुचे बेर सराय लेकिन वहां भी निराशा ही हाथ लगी झंडा नहीं मिला। वहीं पुराने जेएनयू परिसर में स्थित सीआरपीएफ के कैंप में भी हम पंहुच गये झंडे की खोज में लेकिन, उन्होंने कहा कि उनके पास एक ही झंडा था जो कि फहराया जा चुका है। हम बाहर निकले और फिर महापंडित ने कहा कि यार अब ना बस से चलते हैं मुनीरका। हम उनकी बात मानकर बस में बैठे और मुनीरका पंहुचे वहां की गलियों की खाक छानी बहुत खोजने पर एक जगह झंडा मिला उसे लेकर हम वाया ऑटो संस्थान वापस लौटे। यहां कर्मचारियों ने देखा तो कहा कि आ गये गणतंत्र दिवस मनाकर ? हमने कहा कि नहीं तो अभी तो बाकी है यहीं फहरायेंगे तिरंगा। उन्होंने मना कर दिया कि यहां 26 जनवरी को कोई समारोह नहीं होता। लेकिन हम जिद पर थे कि आज तो झंडारोहण करके रहेंगे। वैसे भी अब हम तीन ही नहीं थे हमारे अन्य साथी प्रशांत,जितेश,विकास,चंद्रभूषण,अमन,धर्मेंद्र,अमित,इम्तियाज भी थे। हम जोर-शोर से डंडे की खोज में लग गय जिसे झंडे में लगाया जा सके। फाइनली हमारे साथी इम्तियाज को मिल ही गया डंडा। हमने झंडे को डंडे में लगाया और फिर हमने ऊपर चढ़ने के जुगाड़ की सोची क्योंकि चढ़ने के लिये कोई शॉर्टकट तो है नहीं और ऊपर ताला लगा था। हम अंदर घुसे तो हमें एक सीढ़ी मिल गई बस फिर क्या था? सीढ़ी थी तो छोटी लेकिन हमारे देसी स्पाइडरमैन नीरज उसके सहारे ही चढ़ गये और हमने फिर थोड़ा सा ऊपर चढ़कर झंडा पकड़ाया। अभी ये सब चल ही रहा था कि एक महाशय अंदर से दौड़ते हुये निकले और बोले कि परमीशन कहां है ? बिना परमीशन कैसे कर रहे हो ? और भी तमाम सवाल लेेकर वो कूद पड़े। हमारे महापंडित और अन्य साथियों ने उनसे शब्दों में मुकाबला कर उन्हें निरुत्तर कर दिया फिर भी वो माने नहीं और किसी प्रशासनिक अधिकारी को फोन कर हमारी शिकायत कर दी। लेकिन अधिकारी ने मामले में दखल देने से मना करते हुये कहा कि झंडा ही तो फहरा रहे हैं। कौन सा गलत कर रहे हैं करने दो। हालांकि तब तक हम झंडा फहरा चुके थे।
फिर उन्होंने खुद ही चाभी मंगाई और ताला खुलवाया और हम सारे कॉमरेड ऊपर गये।।
ये तो रही आज के झंडारोहण की कहानी


अब बात करते हैं थोड़ी सामाजिक और संवैधानिक गरिमाओं की।  हर सरकारी संस्थान में 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्टूबर को ध्वजारोहण का प्रावधान है। लेकिन आईआईएमसी हेडक्वार्टर 15 अगस्त को दिन में 11 बजे के बाद, अमरावती में इस साल हुआ ही नहीं बाकी सालों का पता नहीं। 2 अक्टूबर तो खैर स्वच्छता दिवस में निकल गया और 26 जनवरी को तो हद ही हो गई यहां ना तो कोई समारोह ना कुछ गणतंत्र दिवस बस एक छुट्टी बनकर रह गया। वजह पूछने पर गोल मोल जवाब कि यहां नहीं होता,कुछ वजह है, ये है, वो है जाने क्या क्या। लेकिन असल वजह कोई नहीं बता रहा।

कितनी शर्मनाक बात है कि ना तो कोई प्रशासनिक अधिकारी और ना ही महान रूप से एक्टिव रहने वाला आईआईएमसी एलुम्नाई एसोसिएशन (इम्का) इस दिन संस्थान में झंडारोहण करने के लिये आगे आया। जबकि 4-5 दिसंबर 2014 की रात में यहां कुछ शिक्षकों और कुछ छात्रों के सौजन्य से धूम-धाम से बोनफायर का आयोजन हुआ था जहां क्या-क्या हुआ था सबको पता है। और तो और विरोध करने पर मारने-पीटने तक की धमकियां दी गईं। शिकायत करने पर कोई कार्यवाही नहीं की गई अपितु पीड़ित पक्ष को डांट कर चुप करा दिया गया।  24 जनवरी को वसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा करना चाहते थे तो उनको ये कहते हुये मना कर दिया गया कि संस्थान सेक्यूलर है यहां बस राष्ट्रीय पर्व 15 अगस्त, 2 अक्टूबर, और 26 जनवरी ही मनाये जाते है। फिर अब आप ही बताओ कि 26 जनवरी क्यों नहीं मनाई गई ? क्या इससे भी देश की सेक्यूलर इमेज को खतरा है? बंद कक्षाओं में एथिक्स और मोरलिटी के लेक्चर देना बहुत आसान है लेकिन आम जीवन में उनका पालन करना बेहद मुश्किल।। यहां आप वामपंथी कविताओं के पोस्टर लगा सकते हैं किसी अनुमति की जरूरत नहीं।लेकिन तिरंगा फहराने के लिये आपको एक दिन पहले आवेदन देना पड़ेगा। पूरा कैंपस धूम्रपान मुक्त है लेकिन यहां शिक्षक छात्रों को और छात्र शिक्षक को सिगरेट के साथ ही वीड का भी लेन-देन करते हैं। गाजा-सीरिया पर लंबी-लंबी बहसें होती हैं और अपने देश से किसी को कोई लेना देना ही नहीं। आईआईएमसी हॉस्टल के तो कहने ही क्या ? कहने को तो हॉस्टल में रहने वालों के लिये 32 नियम हैं जिनमें नशाखोरी नहीं करने,10 बजे के बाद बाहर तो दूर किसी और के कमरे में जाने की मनाही लिखी है लेकिन यहां लोग पूरी रात बाहर घूमते रहते हैं। नशाखोरी तो बेहद आम बात है यहां। अब ऐसे में सवाल ये है कि आईआईएमसी में पत्रकारों की नई पीढ़ी तैयार की जाती है या नशाखोर, अराजक, और नक्सली विचारधारा को मानने वाले नौजवानों की फौज ??