सिस्टम, जो कभी नहीं बदलता, किसी के लिये नहीं बदलता। और बदले भी क्यों? इस
सिस्टम में हर किसी की जगह फिक्स है। थोड़े फायदे के लिये ये सिस्टम के लोग सिस्टम को अपने फायदे के लिये
तोड़-मरो़ड़ कर इस्तेमाल करते हैं। पत्रकारिता में दाखिला लेने के बाद बड़ा घमंड
था खुद पर और अपनी पढ़ाई पर, गर्व से कहते थे कि मीडिया के स्टूडेंट हैं, पत्रकार
हैं सिस्टम से लड़ेंगे और इसे बदलेंगे क्योंकि हमारे पास ताकत है, कलम की ताकत। हम लड़े भी जहां तक हमसे बन पड़ा हमने लड़ाई लड़ी। हम उस
निर्भया के लिये इंडिया गेट पर लड़े जिसे हम जानते तक नहीं थे। हमने पुलिस की
लाठियां खाईं, आंसू गैस के गोले झेले, ठंड
में ठंडे पानी से भरी वॉटर कैनन झेली। इतना सब करने के बाद सोचा था कि अब कम से कम
दिल्ली में तो हर किसी को न्याय मिलेगा। दिल्ली पुलिस अब तो चेतेगी, और पार्क में बैठे लड़के-लड़कियों को परेशान करने के अलावा आम लोगों की
समस्याओं की तरफ भी ध्यान देगी। आम आदमी की सुनवाई करेगी, लेकिन
हम गलत थे। हां हम गलत थे ये जो दिल्ली पुलिस है ना इसकी चमड़ी इतनी मोटी हो गई है
कि इस पर ना तो किसी के आंसुओं से कोई फर्क पड़ता है और ना ही किसी की चीख से। इसे
किसी का दर्द नहीं दिखता इसे दिखते हैं तो बस नोट, और पार्क
में बैठे लड़के-लड़कियां। बीती रात को इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रहने
वाला हमारा दोस्त मयूक जोशी इस दुनिया से चला गया। कैसे, क्या
हुआ कोई बताने वाला नहीं। हॉस्टल के चीफ वॉर्डन कहते हैं कि वो दिन में मैच जीतकर
आया था तो रात को 9वीं मंजिल के ऊपर एक छोटा कमरा है जिसके
ऊपर पानी की टंकी टाइप की कोई संरचना है। वो शराब के नशे में(हॉस्टल के अंदर शराब
पीकर) उस पर चढ़ा, और गिर गया जिसके बाद (बिना पुलिस को बिना
बताये जबकि यूनिवर्सिटी के कैंपस से सटी हुई पुलिस चौकी है) उसे लेकर ये लोग
हॉस्पिटल आये जहां रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। सुबह जब मुझे पता चला तो मैं
अपने दोस्तों Deep Pilkhwal,Priyagini
UpadhayayKhushi
AroraRumani
Takkar अतुल चंद्राManish
Roy, Mohammad
Irfan HussainDinesh
Awasthi, देवेंद्र, पूर्णिमा
इत्यादि के साथ दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल पंहुचा। जब हम लोग पहुंचे तो डेडबॉडी
पोस्टमार्टम के लिये जा चुकी थी। मौके पर ना तो इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी का कोई
अधिकारी था और ना ही कोई छात्र। वहां पर बस मयूक की दो सीनियर छात्राएं थीं। मौके
पर द्वारका थाने के सब इंस्पेक्टर अशोक कुमार थे जो इस चक्कर में लगे थे कि हम लोग
जल्द से जल्द शव को लेकर मयूक के शहर हलद्वानी निकल जायें क्योंकि उनकी ड्यूटी
खत्म हो रही थी। जब हमने कहा कि बिना एफआईआर के और बिना यूनिवर्सिटी प्रशासन के
आये हम शव नहीं लेंगे तब उन्होंने टाल मटोल शुरू कर दी। बोले कि कुछ नहीं होगा ये
वो ऐसा वैसा। इस बीच यूनिवर्सिटी प्रशासन ने आनन-फानन में मयूक का सामान एक गाड़ी
में भरवा कर हॉस्पिटल भेज दिया। फिर हमने मीडिया में अपने जानने वालों को फोन करना
शुरू किया। इंडिया न्यूज के हमारे साथी प्रशांत सिंह के जरिये हमारी बात विवेक
बाजपेयी सर से हुई जिन्होंने मौके पर रिपोर्टर को भेजा। तब तक हम लगभग 50 से भी ज्यादा बार यूनिवर्सिटी प्रशासन को फोन कर चुके थे। और अशोक कुमार
को भी पता चल गया था कि हम इतनी आसानी से मानने वाले नहीं हैं। वो कुछ देर के लिये
गायब हुये और जब वापस लौटे तो उनके पीछे ही यूनिवर्सिटी के डिप्टी रजिस्ट्रार,
मास कॉम डिपार्मेंट के हेड, चीफ वॉर्डन और
वॉर्डन वहां आये। और आते ही मनगढ़ंत कहानियां सुनानी शुरू कर दीं। बोले की वो फायर
एग्जिट से जरिये उतने ऊपर पहुंच गया था, वो भी शराब पीकर। अब
ये समझ नहीं आ रहा कि फायर एग्जिट ऊपर जाने के लिये होती है या बाहर आने के लिये।
और बच्चे हॉस्टल में शराब पीते हैं तो आखिर उसे रोकने की जिम्मेदारी किसकी है?
अभी पिछले साल ही उसी जगह से गिरकर एक और छात्र की मौत हो चुकी है।
उसके बाद भी प्रशासन ने ना तो वो जगह लॉक की और ना ही वहां पर सुरक्षा के कोई
इंतजाम किये। यहां तक कि 9 फ्लोर के हॉस्टल में सीसीटीवी
कैमरा तक नहीं है। उन्होंने हम पर बॉडी लेने के लिये काफी दबाव बनाया लेकिन जब हम
एफआईआर के लिये अड़े रहे तो सब इंस्पेक्टर साहब नई थ्योरी के साथ सामने आये।
उन्होंने कहा कि मुझे लिखकर दे दो और बॉडी ले लो मैं थाने जाकर एक घंटे में एफआईआर
की कॉपी दे दूंगा। फिर जब हम लिखने लगे तो बोले कि सोच-समझ कर करो जो भी करना है
क्योंकि होना तो कुछ है नहीं। बिना वजह गवाही के लिये अदालत और थाने का चक्कर
काटना पड़ेगा। किसी तरह से उन्होंने शिकायत ले ली। इस दौरान कई पुलिस वाले आये और
गये। और मौके पर मौजूद यूनिवर्सिटी के अधिकारियों से जब हमने वहां के छात्रों की
अस्पताल में अनुपस्थिति के बारे में पूछा तो उन्होंने कुछ ही देर में युनिवर्सिटी
से 7-8 छात्रों को बुलवा लिया। वो छात्र ना तो मयूक के
डिपार्टमेंट के थे ना ही उसके दोस्त थे, यहां तक कि उनमें से
बस एक लड़का ऐसा था जो मयूक के फ्लोर पर रहता था। कुछ वक्त बीतने और अशोक जी के
क्रियाकलाप देखने के बाद जब हमें लगा कि इनके जरिये कुछ होने वाला नहीं है तो हम
उत्तरी जिले में स्थित द्वारका सेक्टर 16बी थाने पहुंचे।
वहां हमें एसएचओ अशोक कुमार जी मिले उन्होंने भी तमाम प्रोसीजर गिनाये और मयूक के
मामाजी को अपनी गाड़ी में बिठाकर कहीं ले जाने लगे। जब हमने विरोध किया और कहा कि
जहां भी जायेंगे हम सब जायेंगे तो वो बोले कि ठीक है यहीं रुको हम डीसीपी से मिलकर
आते हैं। फिर वो 45 मिनट बाद आये और एप्लीकेशन फिर से लिखवाई
और बोले कि एक घंटे रुकिये फिर उसके बाद आपको एफआईआर की कॉपी मिल जायेगी। डेढ़
घंटे से ज्यादा समय बीतने के बाद जब कुछ नहीं हुआ तो हमने किसी तरह लिंक जोड़कर एक
न्यूज चैनल से एक भइया को बुलवाया जो कि एसएचओ महोदय के बैचमेट एक दूसरे एसएचओ के
छोटे भाई हैं। वो अपने साथ उन एसएचओ को महोदय को भी लेकर आये। उनके आने के थोड़ी
देर बाद एक कांस्टेबल ने आकर मयूक के नाम की स्पेलिंग पूछी। और फिर लगभग एक घंटे में
हमें एफआईआर की कॉपी मिली। सिर्फ एक एफआईआर लिखाने के लिये हमें कुल मिलाकर हम 4
घंटे से भी ज्यादा समय तक द्वारका सेक्टर 16बी
थाने में खड़े रहना पड़ा।
इतनी मशक्कत के बाद अगर एफआईआर दर्ज हुई तो इस हाल में हम कैसे उम्मीद करें कि निष्पक्ष जांच होगी और हमें अपने दोस्त की मौत के पीछे के असली कारण का पता चल पायेगा?
खैर ये लड़ाई लंबी चलेगी और हम अंत तक लड़ेंगे। मयूक को इंसाफ जरूर मिलेगा।
इतनी मशक्कत के बाद अगर एफआईआर दर्ज हुई तो इस हाल में हम कैसे उम्मीद करें कि निष्पक्ष जांच होगी और हमें अपने दोस्त की मौत के पीछे के असली कारण का पता चल पायेगा?
खैर ये लड़ाई लंबी चलेगी और हम अंत तक लड़ेंगे। मयूक को इंसाफ जरूर मिलेगा।